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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७०१) पैत्ते पक्त्वा वरीतिक्तापटोलत्रिफलामृताः॥
पिबेघृतं वा क्षीरं वा स्वादु तिक्तकसाधितम्॥१०॥ पित्तको अधिकतावाले वातरक्तमें शतावरी कुटकी परवल त्रिफला गिलोय इन्होंके काथको पीवै. और स्वादु तिक्त द्रव्योंसे सिद्ध किये दूधको अथवा घतको पावै ॥ १० ॥
क्षीरेणैरण्डतैलं च प्रयोगेण पिवेन्नरः॥
बहुदोषो विरेकार्थं जीर्णे क्षीरोदनाशनः ॥११॥ बहुत दोषोंवाला मनुष्य प्रयोग करके जुलाबके अर्थ अरंडाके तेलको दूधके संग पावै पीछे जीर्ण होने दूधके संग चावलोंका भोजन करै ॥ ११ ॥
कषायमभयानां वा पाययेदघृतभर्जितम् ॥
क्षीरानुपानं त्रिवृताचूर्णं द्राक्षारसेन वा ॥ १२ ॥ अथवा हरडोंके घृतमें भुने हुये काथका पान करावै अथवा निशोतके चूर्णको दाखके रसके संग पान करावे और ऊपर दूधका अनुपान करै ॥ १२ ॥
निहरेद्वा मलं तस्य सघृतैः क्षीरवस्तिभिः॥ नहि बस्तिसमं किंचिद्वातरक्तचिकित्सितम् ॥ १३॥ विशेषात्पायुपाश्वोरुपस्थिजठरार्तिषु ॥ अथवा घत सहित दूधकी बस्तियोंकरके तिस रोगीके मलको निकासे क्योंकि बस्तिकर्मके सन अन्यचिकित्सा नहीं है ।। १३ ॥ विशेष करके गुदा पसली जंघा संधि हड्डी पेट इन्होंके शूलोंमें बस्तिकर्म हितहै ॥
मुस्तद्राक्षाहरिद्राणां पिबेक्वाथं कफोल्बणे ॥ १४ ॥
सक्षौद्रं त्रिफलाया वा गुडूची वा यथा तथा ॥ और कफकी अधिकतावाले वातरक्तमें नागरमोथा दाख हलदी इन्होंके क्वाथको पावै ॥ १४ ॥ अथवा शहदसे मिले हुये त्रिफलाके काथको पावै, अथवा सब प्रकार करके गिलोयको पीवै ॥
यथार्हस्नेहपीतं च वापितं मृदु रूक्षयेत् ॥१५॥ और यथायोग्य स्नेह पीनेवालेको और वमन करनेवालेको कोमलपनेसे रूक्षित करै ॥ १५ ॥ त्रिफलाव्यूषपत्रैलात्वक्षीरीचित्रकत्वचाम्॥विडंगं पिप्पलीमूलं लोमशं वृषकं वचम्॥१६॥ऋद्धिं लांगलिकंचव्यं समभागानि पेषयेत् ॥ कल्कैलिप्वायसी पात्री मध्याह्ने भक्षयेदिदम् ॥१७॥वाताने सर्वदोषेपि परं शूलान्विते हितम् ॥ त्रिफला सूट मिरच पीपल तेजपात इलायची वंशलोचन चीता वच वायविडंग पीपलामूल नीले वर्णका हीराकसीस करंजुआका फल दालचीनी ।।१६।। ऋद्धि कलहारी चव्य इन्होंको समभाग ले
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