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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (६९५) ॥४९॥ मूत्रैर्वा शीलयेत्पथ्यां गुग्गुलु गिरिसम्भवम् ॥ व्योषाग्निमुस्तत्रिफलाविडङ्गैर्गुग्गुलुं समम् ॥ ५० ॥ खादन्सर्वाञ्जयेव्याधीन्मेदःश्लेष्मामवातजान् ॥
और ऊरूस्तंभ वातमें स्नेहभी हित नहींहै और संशोधनभी हित नहींहै ॥ ४५ ॥ कफ आममेद इन्होंके बहुलपनेसे, इसकारणसे कफ आम मेदको क्षय करनेवाले पदार्थ प्रयुक्त करने हितहैं
और रूखा उपचार और यव शामक कोदू ॥ ४६॥ ये अन्न नमकसे वार्जित और कछुक तेलवाले शाकोंके संग और पकाये हुये पानीके संग और जाङ्गलदेशमें उपजे हुये और घृतसे वर्जित मांसोंके संग शहद पानी अरिष्टको पीनेवाले मनुष्यके हितहैं ॥ ४७ ॥ वत्सकादि गणके
औषध अथवा हरिद्रादि गणके औषध अभवा वचादिगणके औषध अथवा षट्चरणयोग ये सब सेंधानमकसे संयुक्त किये गरम पानीके संग पीने योग्यहैं ॥ ४८ ॥ अथवा शहदके संग त्रिफला चव्य कुटकी पीपल नागरमोथा इन्होंको चाटै अथवा चव्य हरडै चीता देवदार इन्होंके कल्कको शहदसे संयुक्तकर चाटै ॥४९॥ अथवा गोमुत्रके संग हरीतकीको सेवै तथा गूगलको तथा शिलाजीतको सवै और झूठ मिरच पीपल नागरमोथा त्रिफला वायविडंग इन्होंकरके समान भाग गूगलको ॥ ५० ॥ खाताहुआ मनुष्य मेद कफ आमवातसे उपजी सबप्रकारकी व्याधियोंको जीतताहै।
शाम्यत्येवं कफाक्रान्तः समेदस्कःप्रभञ्जनः॥५१॥क्षारमूत्रान्वि तान्स्वेदान्सेकानुद्वर्त्तनानि च ॥ कुर्याल्लिह्याच्च मूत्राढ्यैःकर अफलसर्षपैः॥५२॥मूलैर्वाप्यर्कतर्कारीनिम्बजैः ससुराह्वयैः ॥ सक्षौद्रसर्षपापक्कलोष्ठवल्मीकमृत्तिकैः ॥५३॥ ऐसे क्रिया कर्मके करनेसे कफसे आक्रांत और मेदसे संयुक्त वायु शांत होताहै ॥ ११ ॥ खार और गोमूत्रसे अन्वित किये स्वेदोंको और सेकोंको और उबटनोंको करै और करंजुआ फल और सरसों इन्होंको गोमूत्रमें मिलाके चाटै ॥ ५२ ॥ अथवा आक अरनी नींब देवदार इन्होंकी जडोंकरके और शहद सरसों कच्चा लोष्ट बंबीकी मांटी इन्होंकरके लेपकरै ।। ५३ ॥
कफक्षयार्थं व्यायामे सह्ये चैनं प्रवर्त्तयेत्॥स्थलान्युल्लंघयेन्नारीः शक्तितः परिशीलयेत्॥५४॥स्थिरतोयं सरःक्षेमं प्रतिस्रोतो नदी तरेत् ॥ श्लेष्ममेदःक्षये चात्र स्नेहादीनवचारयेत् ॥ ५५॥ सहनेके योग्य व्यायाममें कफके क्षयके अर्थ इस ऊरुस्तंभ रोगीको प्रवृत्तकरै, अर्थात् स्थलोंको उलंधित करावै और शक्तिके अनुसार स्त्रियोंका अभ्यास करावै ॥ १४ ॥ स्थिररूप पानीसे संयुक्त और प्राह आदिसे वर्जित तलावको और स्रोतोंके अभिमुख नदीको तर, कफ और मेदके क्षय होजानेमें यहां स्नेह आदिकोभी अवचारितकरै ॥ १५ ॥
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