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( ६९४ )
अष्टाङ्गहृदये
और वर्णसे रहितहुये दंत और मुखसे संयुक्त ढीले अंगोंवाला नष्टज्ञानवाला ॥ ३९ ॥ और अतिशय करके पसीनेवाला धनुर्वात रोगी दशरात्र नहीं जीवता है | वेगेष्वतोऽन्यथा जीवन्मन्देषु विनतो जडः ॥४०॥ खञ्जः कुणिः पक्षहतः पङ्गुलो विकलोऽथवा ॥ हनुस्रंसे हनुस्निग्धस्विन्नौ स्वस्थानमानयेत् ॥४१॥ उन्नामयेच्च कुशलश्चिबुकं निवृते मुखे ॥ नामयेत्संवृते शेषमेकायामवदाचरेत् ॥ ४२ ॥
और इन्होंसे विपरीत वेगोंमें तथा मंद वेगों में धनुर्वात रोगी जीवता है परंतु विशेष करके नवाहुआ और जड ॥ ४० ॥ लंगडा और टूटा आधे अंगसे हत हुआ और पांगुला और विकल मनुष्य होजाता है और छुटी हुई ठोडीमें स्निग्ध और स्वेदित करे दोनों ठोडियोका स्थानमें प्राप्तकरे || ४१ और विवृत अर्थात् बंधहुये मुखमें कुशलवैद्य ठोडीको ऊपरको नवावे और संवृत अर्थात् खुले हुये मुखमें ठोडीको नवाने और शेषरही चिकित्साको अर्दित वातकी तरह करे जिह्वास्तम्भे यथावस्थं कार्य्यं वातचिकित्सितम् ॥
जिह्वा के स्तंभमें अवस्था के अनुसार वातकी चिकित्सा करनी योग्य है |
अर्दिते नावनं मूर्ध्नि तैलं श्रोत्राक्षितर्पणम् ॥ ४३ ॥
और अर्दितरोग में नस्य शिर में तेल कान और नेत्रोंकी तृप्ति हित है ॥ ४३ ॥
सशोफे वमनं दाहरागयुक्ते शिराव्यधः ॥
शोजासे संयुक्तटुये आर्दंत वातमें वमन हित है दाह और रामसे युक्तहुये अर्दितमें शिराका धना हित है ॥
स्नेहनं स्नेहसंयुक्तं पक्षाघाते विरेचनम् ॥ ४४ ॥
और पक्षाघात अर्थात् अर्धांग रोगमें स्नेहनकर्म और स्नेहसे संयुक्त किया जुलाब हित है ॥ ४४ ॥ अववाह हितं नस्यं स्नेहश्चोत्तरभक्तिकः ॥
अथवा अवबाहुक वातमें नस्य और भोजनके उपरांत लेहकर्म हित है ॥
ऊरुस्तम्भे न च स्नेहो नच संशोधनं हितम् ॥४५॥ श्लेष्माममेदोबाहुल्याद्युक्त्या तत्क्षपणान्यतः ॥ कुर्य्याद्र्क्षोपचारांश्च यव श्यामाककोद्रवाः ॥४६ ॥ शाकैरलवणैः शस्ताः किञ्चित्तैलैर्जलैः श्रुतैः ॥ जाङ्गलैरघृतैर्मासैर्मध्वम्भोऽरिष्टपायिनः ॥ ४७ ॥ वत्स कादिहरिद्रादिवचादिर्वा ससैन्धवैः ॥ आमवाते सुखाम्भोभिः पेयः षट्चरणोऽथवा ॥ ४८ ॥ लिह्यात्क्षौद्रेण वा श्रेष्ठाचव्यतिक्ता फणाघनान् ॥ कल्कं समधु वा चव्यपथ्याग्निसुरदारुजम्
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