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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (६९३) सौवर्चलाभयाव्योषसिद्धं सर्पिश्चलेऽधिके ॥३२॥ अधिकरूपवायुमें कालानमक हरडै सूंठ मिरच पीपल इन्होंकरके सिद्ध किया घृत हितहै।।३२॥ पलाष्टकं तिल्वगतो वरायाःप्रस्थं पलांशं गुरुपञ्चमूलम्॥सैरण्डसिंहीत्रिवृतं घटेऽपां पक्त्वा पचेत्पादशृतेन तेन ॥ ३३ ॥ दन्नः पात्रे यावशूकात्रिविल्वैः सर्पिःप्रस्थं हन्ति तत्सेव्यमानम्॥ दुष्टान्वातानेकसर्वांगसंस्थान्योनिव्यापद्गुल्मवर्मोदरं च ॥३४॥ लोध ३२ तोले त्रिफला ६४ तोले बृहत्पंचमूल ४ तोले और अरंड कटेहली निशोत येभी चार चार तोले इन्होंको १०२४ तोले पानीमें पकावै जब चौथाई भाग शेष रहै तब ॥ ३३ ॥ दही २५६ तोले जवाखार १२ तोले घत ६४ तोले इन्होंको मिलाके सिद्ध करै सेवित किया यह घृत दुष्टवात एकांगगतवात सर्वाङ्गगत वात योनिव्यापत् गुल्म व रोग उदररोगको नाशता है॥३४॥
विधिस्तिल्वकवज्ज्ञेयः शम्याकाशोकयोरपि ॥
चिकित्सितमिदं कुर्य्याच्छुद्धवातापतानके ॥ ३५॥ इसी घृतकी तरह अमलतास और अशोकवृक्षकीभी विधि जाननी और इस चिकित्सितके शुद्भवायुसे उपजे अपतानकरोगमें करै ॥ ३५ ॥ संसृष्टदोषे संसृष्टं चूर्णयित्वा कफान्विते॥तुम्बुरूण्यभयाहिगुपौकरं लवणत्रयम् ॥ ३६॥ यवक्वाथाम्बुना पेयं हृत्पावर्त्यिप तन्त्रके ॥ हिमु सौवर्चलं शुण्ठीदाडिमं साम्लवेतसम् ॥३७॥ पिबेद्वा श्लेष्मपवनहृद्रोगोक्तं च शस्यते॥ मिश्रित दोषोंवाले अपतानकमें दो दोषोंमें कही हुई चिकित्साको करै और कफसे युक्तहुये अपतानकमें चिरफल हरडै हींग पोहकरमूल सेंधानमक कालानमक मनियारीनमक इन्होंका चूर्णकर ॥ ३६ ॥ जवोंके काथके पानीके संग पावै हृत्पीडा पशलीपीडा अपतंत्रकवात इन्होंमें हींग कालानमक सूंठ अनारदाना अम्लवेतस इन्होंको जवोंके क्वाथके पानीके संग पावै ।। ३७ ॥ अथवा कफवातसे उपजे हृदोगमें जो कहाहै वह श्रेष्टहै ॥
आयामयोरर्दितवबाह्याभ्यन्तरयोः क्रिया ॥३८॥
तैलद्रोण्यां च शयनमान्तरोऽत्र सुदुस्तरः॥ बाह्यायाममें और अभ्यंतरायाममें अर्दित अर्थात् लकवा वातकी तरह क्रियाकरै ॥ ३८ ॥ और तेलकी द्रोणीमें शयन करावै और इन दोनों के मध्यमें अंतरायाम अत्यंत कष्टसाध्यहै ॥
विवर्णदन्तवदनः स्रस्ताङ्गो नष्टचेतनः ॥३९॥ प्रस्विन्नश्च धनुष्कुम्भी दशरात्रं न जीवति ॥
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