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( ६९०)
अष्टाङ्गहृदये___ और स्वेदितकिये मनुष्यके प्रयुक्त किया स्नेह तत्काल सूखे धातुओंको पुष्ट करताहै ॥ ७ ॥ और इस वातरोगीके केवल अग्निका बल पुष्टि प्राणको बढाताहै और तिस रोगीको फिर स्नेह स्वेदोंकरके योजित करै ॥८॥ ऐसे स्नेह करके कोमल हुये कोष्टमें वायुके रोग नहीं स्थित रहतेहैं ।
यद्यतेन सदोषत्वात्कर्मणा न प्रशाम्यति ॥९॥
मृदुभिः स्नेहसंयुक्तैर्भेषजैस्तं विशोधयेत् ॥ ___ और जो दोष युक्त होनेसे इस कर्मकरके वातरोग शांतिको नहीं प्राप्त होवे ॥ ९ ॥ तब स्नेहसे संयुक्त और कोमल औषधोंकरके तिस रोगीको शोधितकरै ॥
घृतं तिल्वकसिद्धं वा शातलासिद्धमेव वा ॥ १०॥
पायसैरण्डतैलं वा पिवेदोपहरं शिवम् ॥ अथवा लोधमें सिद्ध किये घृतको अथवा शातला करके सिद्ध किये वृतको ॥ १० ॥ अथवा दूधके संग अरंडीके तेलको पावै यह पान दोषोंको हरताहै और कल्याणरूपहै ||
स्निग्धाम्ललवणोष्णाचैराहारैर्हि मलश्चितः॥११॥
स्रोतोरुध्वाऽनिलं रुध्यात्तस्मात्तमनुलोमयेत् ॥ और स्निग्ध अम्ल नमक करम आदि भोजनोंकरके संचितहुआ मल ॥ ११ ॥ स्रोतोंको रोकि कर वायुको रोकताहै तिसकारणसे वायुको अनुलोमितकर ॥
दुर्बलो यो विरेच्यः स्यात्तं निरूहैरुपाचरेत्॥१२॥ दीपनैः पाचनीयैर्वा भोज्यैर्वा तद्युतैनरम् ॥ संशुद्धस्योत्थिते चाग्नौ स्नेह स्वेदो पुनहितौ ॥ १३ ॥
और जो दुर्बल मनुष्य विरेचनके अयोग्यहो तिस मनुष्यको दीपन अथवा पाचन निरूहों करके उपाचरितकरै ॥ १२॥ अथवा दीपन और पाचन भोजनोंकरकेभी उपाचारितकरे, पीछे अच्छी तरह शुद्धहुये मनुष्यके जागी हुई अग्निमें फिर स्नेह और स्वेद हितहै ॥ १३ ॥
आमाशयगते वायौ वमितप्रतिभोजिते॥सुखाम्बुना षट्चरणं वचादि वा प्रयोजयेत्॥१४॥संधुक्षितेऽग्नौ परतो विधिः केवल वातिकः॥मत्स्यान्नाभिप्रदेशस्थेसिद्धान्बिल्वशलाटुभिः॥१५॥
और आमाशयमें प्राप्त हुये वायुमें वमन अथवा अल्प भोजन कियाजावे तो मनुष्य गरमपानीके संग षटचरणयोगको अथवा वचादिगणके चूर्णको प्रयुक्तकरै ॥ ॥ १४ ॥ जागी हुई अग्निमें तिस मनुष्य के अर्थ केवल वातिकविधि करनी योग्यहै और नाभिदेशमें स्थित हुये वायुमें कच्चे बेलफलों करके सिद्ध करी मछलियोंको प्रयुक्तकरै ॥ १५ ॥ १ षट्चरणं इत्यत्र षद्धरणं इतिवाकुत्रचित्पाठांतरः ।
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