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चिकित्सास्थानं भापाटीकासमेतम् । (६८९)
एकविंशोऽध्यायः। अथातो वातव्याधिचिकित्सितं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर वातव्याधिचिकित्सितनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे। केवलं निरुपस्तम्भमादौ स्नेहैरुपाचरेत् ॥ वायु सपिर्वसामज्जा तैलपानैर्नरं ततः॥१॥नेहाक्रान्तं समाश्वास्य पयोभिः स्नेह येत्पुनः॥ यूषैाम्योदकानूपरसैर्वा स्नेहसंयुतैः॥ २॥ पायसैः कृशरैः साम्ललवणैःसानुवासनेवातघ्नस्तर्पणैश्चान्नैःसुस्निग्धैः स्नेहयेत्ततः॥३॥स्वभ्यक्तं स्नेहसंयुक्तैः शङ्कराद्यैःपुनःपुनः॥ उपस्तंभसे रहित केवल वायुको प्रथम स्नेहोंकरके उपचारितकरै अर्थात् घृत वसा मज्जा तेल इन्होंके पानोंकरके मनुष्यको स्नहितकरै ॥ १ ॥ स्नेह करके आक्रांत हुये मनुष्यको अच्छीतरह दूधकरके आश्वासित कर फिर स्नेहसे संयुक्त किये यूपोंकरके अथवा ग्राम्य जल अनूपदेश इन्होंके मांसोंके रसेकरके स्नेहितकरै ॥ २ ॥ पीछे खीर कृशरा अम्ल और नमकसे संयुक्त पदार्थोंकरके और अनुवासन करके और वातको नाशनेवाले और तृप्तिको करनेवाले और अच्छीतरह चिकने अन्नोंकरके स्नेहितकरै ॥ ३॥ और अच्छीतरह अभ्यक्त किये तिस मनुष्यको स्नेहसे संयुक्त शंकर आदि स्वेदोंकरके बारंवार स्वेदित करै यह विधि स्वेदविधानमें देखो ॥
स्नेहाक्तं स्विन्नमङ्गन्तु वक्रं स्तब्धंसवेदनम्॥४॥ यथेष्टमानामयितुं सुखमेव हि शक्यते॥शुष्काण्यपि हि काष्ठानि स्नेहस्वेदोपपादनैः॥५॥शक्यं कर्मण्यतां नेतुं किमु गात्राणि जीवताम्॥ स्नेहसे अभ्यक्त स्विन्न कुटिल स्तब्ध और पीडासे संयुक्त अंगको ॥ ४ ॥ इच्छाके अनुसार जैसे सुख होसके तैसे नवानको समर्थ होवै क्योंकि स्नेह तथा स्वेदके संयोजन करके सूखेभी काष्ठ ॥५॥ यथायोग्य कर्मसे नमनकरनेको समर्थ होसकतेहैं फिर जीवतेहुये मनुष्योंके अंग कैसे न होसकेंगे ।
हर्षतोदरुगायामशोफस्तम्भग्रहादयः ॥६॥
स्विन्नस्याशु प्रशाम्यन्ति मार्दवं चोपजायते ॥ और हर्ष चभका शूल विस्तारपना शोजा स्तभ बंधा आदि सब रोग ॥ ६ ॥ स्वेदित मनुष्यके तत्काल शांत होजातेहैं और स्वेदितकिये मनुष्यके अंगों में कोमलता उपजतीहै ।
स्नेहश्च धातून्संशुष्कान्पुष्णात्याशुप्रयोजितः॥७॥बलमाग्नि बलं पुष्टिं प्राणं चास्याभिवर्द्धयेत्॥असकृत्तं पुनःस्नेहैःस्वेदैश्चप्रतिपादयेत् ॥८॥ तथा स्नेहमृदौ कोष्ठे नतिष्ठन्त्यनिलामयाः॥
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