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(६८८)
अष्टाङ्गहृदये• और १०० बार बायविडंगके काथमें भावित किये घोडकी लीदके चूरनको ॥ २७ ॥ अथवा १०० बार त्रिफलाके रसमें भावितकिये घोडेकी लीदके चूरनको पृधमन नस्यमें आचरित करे ॥ २८ ॥ शालिचावलोंके चूर्णसे मिलेहुये और अच्छतिरह पिसेहुये मूसाकणीके पत्तोंकरके पूरीको पकाके खावै और कांजीका अनुपानकरै ॥ २९ ॥ अथवा पीपल पीपलामुल चव्य चीता सूंठ नमक इन्होंसे संयुक्त और पतले तक्रको पीवै ।।
नीपमार्कवनिर्गुण्डीपल्लवेष्वप्ययं विधिः ॥३०॥
विडंगचूर्णमित्रैर्वा पिष्टैर्भक्ष्यान्प्रकल्पयेत् ॥ अथवा कदंव भंगरा संभालूके पत्तोंमेंभी यही पूर्वोक्त विधि कल्पित करनी योग्यहै ॥ ३० ॥ अथवा बायविडंगके चूरनसे मिलेहुये शालिचावलोंके चूरन करके भक्ष्यपदार्थोंको कल्पितकरै ॥
विडङ्गतण्डुलैर्युक्तमाशैरातपस्थितम् ॥३१॥ दिनमारुष्करं तैलं पाने वस्तौ च योजयेत् ॥
सुरावसरलस्नेहं पृथगेवं प्रकल्पयेत् ॥ ३२ ॥ और आधेभागसे प्रमाणित वायविडंगके दानोंसे संयुक्त और घाममें स्थित ॥ ३१ ॥ ऐसे भिलावांके तेलको पान और बस्तिकर्ममें योजित करै और ऐसेही देवदारुके तेलको और सरलवृक्षके तेलको कल्पितकरै ॥ ३२॥
पुरीषजेषु सुतरां दद्याइस्तिविरेचने ॥
शिरोविरेकं वमनं शमनं कफजन्मसु ॥३३॥ विष्ठासे उपजनेवाले कृमिरोगोंमें अच्छीतरह बस्तिकर्म और जुलाबको देवै और कफसे उपजे कीडोंमें शिरका जुलाब अर्थात् नस्यकर्म वमन शमनको करै ॥ ३३ ॥
रक्तजानां प्रतीकारं कुर्यात्कुष्ठचिकित्सितात् ॥
इन्द्रलुप्तविधिश्चात्र विधेयो रोमभोजिषु ॥३४॥ रक्तसे उपजे कीडोंके प्रतीकारको कुष्ठकी चिकित्सासे करे और रोओंके भोजन करनेवाले कीडोंमें वक्ष्यमाण इन्द्रलुप्तकी विधि करनी हितहै ॥ ३४ ॥
क्षीराणि मांसानि घृतं गुडञ्च दधीनि शाकानि च पर्णवन्ति ॥ समासतोऽम्लान्मधुरानसांश्च कृमीनिहासुः परिवर्जयेच॥ ३५॥ दूध मांस घृत गुड दही पत्तोंवाले शाक विस्तारसे खट्टे और मधुररसको कीडोंको दूर करनेवाला मनुष्य वर्जिदेवै ॥ ३५ ॥
इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताष्टांगहृदयसंहिताभाषाटी
कायां चिकित्सितस्थाने विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
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