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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (६९१) बस्तिकर्म त्वधो नाभेःशस्यते वावपीडकः॥कोष्ठगे क्षारचर्णा द्या हिताः पाचनदीपनाः॥१६॥हृत्स्थे पयः स्थिरासिद्धं शिरो बस्तिःशिरोगत॥स्नेहिकं नावनं धूमःश्रोत्रादीनां च तर्पणम्॥१७॥ नाभिके नीचे स्थितहुये वातमें वस्तिकर्म अथवा अवपीडक अथवा पूर्वोक्त मछली इन्होंको प्रय क्तकर और कोष्ठगत बायुमें खार आदि चूर्ण पाचन और दीपन हितहै ॥ १६ ।। हृदयमें स्थितहु ये वायुमें शालपर्णी करके सिद्धकिया दूध हितहै और शिरमें प्राप्तहुये वायुमें शिरोबस्ति हितहै और स्नेहसे संयुक्तकिया नस्य तथा धूआं तथा कान आदियोंका तर्पण ये हितहैं ॥ १७ ॥
स्वेदाभ्यङ्गानि वातानि हृद्यं चान्नं त्वगाश्रिते॥शीताःप्रदेहा रक्तस्थे विरेको रक्तमोक्षणम् ॥१८॥ विरेको मांसदस्थे निरूहाः शमनानि च ॥ वाह्याभ्यन्तरतः स्नेहैरस्थिमजागतं जयेत्॥१९॥प्रहर्षोऽन्नं च शुक्रस्थे बलशुक्रकरं हितम् ॥ विबद्ध मार्ग दृष्ट्रातु शुक्रं दद्याद्विरेचनम्॥२०॥ विरिक्तं प्रतिभुक्तं च पूर्वोक्तां कारयक्रियाम्॥ त्वचागल वायुमें पसीना स्वेद और अभ्यंग अथवा हृदयको प्रियरूप अन्न हितहै और रक्तमें स्थितहुये वायुमें लेप और जुलाब और रक्तका निकासना हितहै ॥ १८ ॥ मांस और मेदमें स्थितहु ये वायुमें जुलाब निरूहबस्ति शमन ये हितहैं, मजागत वायुको बाह्य और भीतरसे स्नहोंकरके जीते ॥ १९ ॥ वीर्यमें स्थितहुये वायुमें प्रहर्पण तथा बल और वीर्यको करनेवाला अन्न हितहै, और विशेष करके रुके हुये मार्गवाले वीर्यको देखके जुलाबको देवै ॥ २० ॥ विरिक्त और प्रतिभक्तहये मनुष्यके अर्थ पूर्वोक्त क्रियाको करै ।।
गर्भे शुष्के तु वातेन बालानां च विशुष्यताम्॥२१॥ सिताकाश्म-मधुकैः सिद्धमुत्थापने पयः ॥ और वातकरके शुष्कहुये गर्भमें और सूखतेहुये बालकोंको ॥ २१ ॥ मिसरी कंभारी मुलहटी इन्होंकरके सिद्ध किया दूध उत्थापनमें हितहै ॥
स्नायुसन्धिशिरःप्राप्ते स्नेहदाहोपनाहनम् ॥ २२ ॥
तैलं सङ्कुचितेऽभ्यङ्गो माषसैन्धवसाधितम् ॥ और नस संधि नाडी इन्होंमें प्राप्त हुये वायुमें स्नेह दाह उपनाहन ये हितहैं ॥ २२ ॥ संकुचित दुये अंगमें उडद और सेंधानमकसे साधित किये तेल की मालिश हितहै ।।
आगारधूमलवणतैलैर्लेपः स्रुतेऽसृजि ॥ २३॥ सुप्तेऽङ्गे वेष्टयुक्ते तु कर्त्तव्यमुपनाहनम् ॥
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