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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२ ) अष्टाङ्गहृदये मत्स्यका दूध आदि । और जो द्रव्य, दोषमल धातु की समताका करनेवाला है सो द्रव्य स्वस्थहित कहलाता है । और दोष आदि मलपर्य्यन्तों के स्वास्थ्यका अनुवृत्तिको करता है अर्थात् जैसे स्वास्थ्य होवे तैसे जो करता है सो द्रव्य स्वस्थहित कहलाता है । ऋतुचर्य्याध्यायमें सेव्यवहेतुसे कहा है । और तैसेही मात्राशितीयाध्यायमें कहा है । रक्तशाली षष्टिक यवक गोधूम जांगलमांस जीवन्तीशाक सुन्दरजल दुग्ध आदि । तथा जो ऊर्जस्कर रसायन वाजीकरण है सो सर्वकालमें सेवन के योग्य कहा है । तिसके वीर्यको कहते हैं । उष्णशीतगुणोत्कर्षात्तत्र वीर्य्यं द्विधा स्मृतम् ॥ तिस द्रव्यमें वीर्य (शक्ति) दो प्रकारसे हैं । वीसगुणों के मध्यमें दो जो उष्ण और शीत गुण हैं तिनके उत्कर्ष वीर्य होता है सम्पूर्ण आयुर्वेद में प्रसिद्ध दो ही शीत और उष्ण गुण वीर्यक उत्पन्न करनेमें कारणहैं । ( उष्णगुणका उत्कर्ष ) अर्थात् उष्ण गुणका अतिशयही कोई उष्णवीर्थ्य आख्याको प्राप्त होताहै। तैसेही शीतगुणका उत्कर्ष शीतगुण अतिशय शीतवीर्य्य आख्याको प्राप्त होता है । यद्यपि अनेक गुणवाला द्रव्य है तथापि जगत्का दो ही प्रकारका वीर्य है । क्योंकि सब जगत् अग्निषोमात्मक अर्थात् उष्णगुणप्रधान तेज और शीतगुणप्रधानतेजमय है । द्रव्यका विपाक कहते हैं। • त्रिधा विपाको द्रव्यस्य स्वाद्वम्लकटुकात्मकः ॥ १७ ॥ विपाक तीन प्रकारसे होता है । सम्पूर्ण द्रव्योंके परिणामकालमें होनेवाले कार्यसे जानाजाताहै, और जठराग्नि के संयोगसे रसोंका दूसरा दूसरा रूपहोना विपाक कहलाता है सो विपाक तीनही प्रकार से होता है । रस छह ६ भी हैं, परन्तु विपाक छह प्रकारसे नहीं है तिससे सिद्ध हुवा कि कोई द्रव्य स्वादुविपाकवाला होता है और कोई द्रव्य अम्लविपाकवाला होताहै और कोई द्रव्य कटुविपाकवाला होता है । तहां फिर ऐसे जान्ना चाहिये कि मधुररस और लवणरस इनदोनोंका मधुर विपाक होता है । और अम्लरसका अम्लविपाक होता है और तिक्त कटुक कषाय इन तीनोंका कटुकविपाक होता है सो कार्य से अनुमानको प्राप्त होता है अर्थात् जानाजाता है । यथा " जाठरेणाग्निना योगाद्यदुदेति रसांतरम् । रसानां परिणामान्ते स विपाक इति स्मृतः ॥ अर्थ जठराग्निके संयोगसे रसों का जो रसान्तरोंको प्राप्त होना है सो रसोंका पारणामांत अर्थात् जिस परिणामसे फिर परिणाम न हो, वह रसोंका रूपही विपाक कहलाता है । कुछ जठराग्नि के संयोगसे रसोंकी जो अनेक अवस्थायें होती हैं सो विपाक नहीं हैं । इसी तात्पर्य्यको पूर्व विशब्द प्रकट करता है 59 1 अब ग्रन्थकार द्रव्यके गुण कहते हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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