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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम्। (६७९) पीपल शरसा हलदी घरका धूमां जवाखार नमक चीता कूठ इन्हों करके और आधेभाग मीठा तेलिया करके ८ मासेके प्रमाणसे करी हुई गोली लेपसे श्वित्र और कुष्ठको हरतीहै यह श्रेष्ठ लेपहै ॥६॥
निम्ब हारने सुरसं पटोलंकुष्ठाश्वगन्धे सुरदारुशिग्रुः ॥ ससर्षपं तुम्बरुधान्यवन्यं चण्डावचूर्णानि समानि कुर्यात्॥६५॥ तैस्तक्रपिष्टैः प्रथमं शरीरं तैलाक्तमुद्वर्तयितुं यतेत ॥ तेनास्य कण्डूपिटिकाः सकोठाः कुष्ठानि शोफाश्च शमं व्रजन्ति ॥६६॥ नींब हलदी दारुहलदी बीजाबोल परवल कूठ आसगंध देवदार सहोजना शरसों चिरफल धनियां वालछड शिवलिंगी इन्होंके चूणोंको ॥६५॥ ये सब समान भाग लेवै इन्होंको तक्रमें पीस प्रथम तेलसे अभ्यक्त हुये शरीरको उर्वृतन करनेका जतन करै उर्द्वतनके पीछे गरम जलसे स्नानकरै तिस करके खाज फुनसी कोड कुष्ठ शोजा ये शांतिको प्राप्त होतेहैं ॥ ६६ ।।
मुस्तामृतासङ्गकटङ्कटेरीकासीसकम्पिल्लककुष्ठरोधाःगन्धोप
लः सर्जरसो विडङ्ग मनः शिलाले करवीरकत्वक् ॥६७॥तैलाक्तगात्रस्य कृतानिचूर्णान्येतानिदद्यादवचूर्णनार्थम्।।दद्रूःसक
ण्ड्रः किटिभानि पामा विचचिका चेति तथा न सन्ति ॥६॥ नागरमोथा गिलोय फटकडी कसीस कवीला कूठ लोध दारुहलदी राल वायविडंग मनशिल हरताल कनेरकी छाल ये सब समान भाग ले चूरन बना ॥ ६७ ॥ तेल करके अभ्यक्त हुये शरीरवाले मनुष्यके मर्दन करनेके अर्थ इस चूरणको देवै इसके प्रतापसे दद्रू खाज किटिभ कुष्ठ पाम विचर्चिका कुष्ठ ये नहीं रहतेहैं ॥ ६८ ॥
स्नुग्गण्डे सर्षपात्कल्कः कुकूलानलपाचितः॥ लेपाद्विचर्चिकां हन्ति रागवेग इव त्रपाम् ॥६९॥ मनःशिलाले मरिचानि तैलमार्क पयः कुष्ठहर प्रदेहःतथा करञ्जप्रपुनाटबीजंकुष्ठान्वितं गोसलिलेन पिष्टम् ॥ ७० ॥ थोहरके गंडमें शरसोंका कल्कभरा तुषकी अग्निसे पकाकर उसके लेपसे विचर्चिकाकुष्ठ नाशताहै जैसे प्रीतिका वेग लाजको नाशताहै ॥ ६९ ॥ मनशिल हरताल मिरच तैल आकका दूध इन्होंका लेप कुष्ठको हरताहै,अथवा करंजुआ पुआंडके बीज कूठ इन्होंको गोमूत्रमें पीस लेप करनेसे कुष्ठका नाश होताहै ॥ ७० ॥
गुग्गुलुमरिचविडङ्गैः सर्षपकासीससर्जरसमुस्तैः॥श्रीवेष्टकालगन्धैर्मनःशिलाष्टकंपिल्लैः ॥७१ ॥ उभयहरिद्रासहितैश्चा क्रिकतैलेनमिश्रितैरेभिः॥दिनकरकराभितप्तैःकुष्ठंघृष्टश्चनष्टश्च७२
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