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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ६६९ )
गूडूच्योश्चप्रयोगैर्गिरिजस्यच ॥ मुस्तभल्लातसक्तूना प्रयोगैर्माक्षिकस्य च ॥ ३० ॥ धूमैर्विरेकैः शिरसः पूर्वोक्तैर्गुल्मभेदनैः ॥ तप्तायो हेमलवणपापाणादिप्रपीडनैः ॥ ३१ ॥
मूली और कुलथियों के यूषकरके खार और अनारसे संयुक्त किये गेहूं और जबके अन्नोंके भोजनोंकरके और शीधु शहद खांड इन्होंकरके ||२८|| और विजोराके रससे संयुक्त और शहद से संयुक्त वारुणी मदिरा करके शहद से संयुक्त त्रिफला के प्रयोगोंकरके और शहद से संयुक्त करै पीपलों के प्रयोगोंकरके || २९ || देवदार और गिलोय के प्रयोगोंकरके और शिलाजीतके प्रयोगकरके और नागरमोथा भिलावाँ सत्तू इन्होंके प्रयोगोंकरके और शहद के प्रयोगों करके || ३० || और धूमरके और शिरके जुलाबोंकरके और पहिले कहेहुये गुल्मके भेदनरूप द्रव्योंकरके और तपाये हुये लोहा सोना नमक पत्थर आदिके प्रपीडन करके दीर्घ कालसे स्थित हुये ग्रंथीविसर्पको भेदित करै ॥ ३१ ॥ आभिः क्रियाभिः सिद्धाभिर्विविधाभिर्बले स्थितः॥ग्रन्थिःपाषा
कठिन यदि नैवोपशाम्यति ॥ ३२ ॥ अथास्य दाहः क्षारेण शरैर्हेनापि वा हितः ॥ पाकिभिः पाचयित्वा तु पाटयित्वा
तमुद्धरेत् ॥ ३३ ॥
सिद्धरूप अनेक प्रकारकी इन क्रियाओंकरके बलमें स्थित हुआ और पत्थर के समान कठोर वह ग्रंथी कदाचित् नहीं शांत हो तो ॥ ३२ ॥ खार करके अथवा शरोंकरके अथवा सोना करके इस ग्रंथिका दाह करना हित है अथवा कनेवाले औप करके इस ग्रंथिको पकाके और फाडके इस ग्रंथिको उद्धार करै ॥ ३३॥
मोक्षशास्य रक्तमुत्क्लेशमागतम् ॥
पुनश्चापहृते रक्ते वातश्लेष्मजिदौषधम् ॥ ३४ ॥
और इस ग्रंथिके बहुत प्रकारसे उत्क्लेशको प्राप्तहुये रक्तको निकासै फिर रक्तको निकासनेके पश्चात् वात और कफको जीतनेवाला औषध हित हैं ॥ ३४ ॥
प्रक्लिन्ने दाहपाकाभ्यां बाह्यान्तर्व्रणवद्धितम् ॥ दार्वीविडङ्गकंपिल्लैः सिद्धं तैलं व्रणे हितम् ॥ ३५ ॥ दूर्वास्वरससिद्धं तु कफपित्तोत्तरे घृतम् ॥
दाह और पाक करके प्रक्लिन्नहुये विसर्पमें बाह्य और भीतरके घावकी तरह क्रिया करे अथवा दारुहळदी वायविडंग कपिला इन्होंकर के सिद्ध किया तेल घावमें हितहै ॥ ३५ ॥ कफ और पित्तकी अधिकतावाले विसर्पमें दूवके स्वरस करके सिद्ध किया घृत हित है ॥
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