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( ६७० )
अष्टाङ्गहृदये
एकतः सर्वकर्माणि रक्तमोक्षणमेकतः ॥ ३६ ॥ विसर्पो नह्यसंसृष्टः सोऽस्रपित्तेन जायते ॥ रक्तमेवाश्रयश्चास्य बहुशोऽत्रं हरेदतः ३७ ॥
और बिसर्परोग में एक तर्फको सब कर्म और एक तर्फको रक्तका निकासना कहाहै ॥ ३६ ॥ रक्तपित्तकरके असंसृष्टहुआ विसर्प नहीं होता है और इस विसर्पका रक्तही आश्रय है इस कारण से बहुतबार रक्तको निकासै ॥ ३७ ॥
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घृतं बहुदोषाय देयं यत्र विरेचनम् ॥
तेन दोषो ग्रुपस्तब्धस्त्वक्तपिशितं पचेत् ॥ ३८ ॥
बहुत दोषोंवाले त्रिसर्प रोगीके अर्थ जो जुलाब नहीं लगता है ऐसे घृतको नहीं देवै क्योंकि तिस घृतकरके उपस्तंभित हुआ दोष त्वचा रक्त मांसको पकाता है ॥ ३८ ॥
इति वेरीनिवासिवैद्य पंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभापाटीकायांचिकित्सितस्थाने अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
एकोनविंशोऽध्यायः ।
अथातः कुष्ठचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर कुष्ठचिकित्सितनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे ||
कुष्ठिनं स्नेहपानेन पूर्वं सर्वमुपाचरेत् ॥
पहिले सब प्रकार के कुष्टरोगीको स्नेहका पान कराके उपचारित करे || तत्र वातोत्तरे तैलं घृतं वा साधितं हितम् ॥ १॥ दशमूलामृतैरण्डशाङ्गयेष्ठामेषशृङ्गिभिः ॥
तहां वातकी अधिकतावाले कुष्ठमें साधित किया घृत अथवा तेल हि गिलोय सरंड अरंजवल्ली मेंढासिंगी इन्होंकर के पत्रकिया तेल और धृत पटोलनिम्बकटुकादावपाठादुरालभाः ॥ २॥ पर्पटं त्रायमाणाञ्च पालाशंपाचयेदपाम् ॥ द्वयादकेऽष्टांशशेषेण तेन कर्षोन्मितैस्तथा ॥ ३ ॥ त्रायन्तीमुस्तभूनिम्बक लिङ्गकणचन्दनैः॥ सर्पिषो द्वादशपलं पचेत्तत्तिक्तकं जयेत् ॥ ४ ॥ पित्तकुष्ठपरीसर्पपिटिका दाहतृभ्रमान् ॥ कण्डूपाण्ड्डामयान्गण्डान्दुष्टनाडीव्रणापचीः ॥ ५ ॥ विस्फोट विद्रधीगुल्मशोफोन्मादमदानपि ॥ हृद्रोगति
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॥ १ ॥ दशमूल
हित है ॥