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(६६८)
अष्टाङ्गहृदयेशतधौतघृतेनाग्निं प्रदिह्यात्केवलेन वा॥ सेचयेघृतमण्डेन शीतेन मधुकाम्बुना ॥ २१॥ शीताम्भसाम्भोजजलैः क्षीरेणे क्षुरसेन वा ॥ पानलेपनसेकेषु महातिक्तं परं हितम् ॥ २२ ॥ सो १०० बार धोये घृतकरके अग्निविसर्पको लेपित करै अथवा अकेले घृतक मंड करके सेचित करै अथवा शीतलकिये मुलहटीके पानीकरके सेचित करै ॥ २१ ॥ और कमलकेपानी , करके और ईखके रसकरके और दूधकरके सेचित करै और पान लेपन सेंक इन्होंमें महातिक्त घृत अत्यंत हितहै ॥ २२ ॥
ग्रन्थ्याख्ये रक्तपित्तघ्नं कृत्वा सम्यग्यथोदितम् ॥
कफानिलघ्नं कर्मेष्टं पिण्डस्वेदोपनाहनम् ॥ २३ ॥ ग्रंथि विसर्पमें रक्तपित्तको नाशनेवाले कर्मको करके पीछे सम्यक् कहाहुआ कफ और वातको नाशनेवाला पिंड स्त्रेद उपनाह कर्म वांछितहै ॥ २३ ॥
ग्रन्थिवीसर्पशूले तु तैलेनोष्णेन सेचयेत् ॥
दशमूलविपक्केन तद्वन्मूत्रैजलन वा ॥२४॥ ग्रंथिविसर्पके शूलमें दशमूलमें पकायेहुये गरमतेलसे सेचित करै अथवा दशमूलमें पकाये गोमूत्रकरके अथवा दशमूलमें पकाये पानीकरके सेचित करै ॥ २४ ॥
सुखोष्णया प्रदिह्याद्वा पिष्टया कृष्णगन्धया ॥
नक्तमालत्वचा शुष्कमूलकैः कलिनाऽथवा ॥२५॥ अथवा पिसी हुई और सुखपूर्वक गरम करी हुई सेवगाकरके अथवा करंजुआकी छाल करके अथवा सूखी मूलियों करके अथवा ऐसेही बहेडेकरके लेप करै ॥ २५ ॥ । दन्तीचित्रकमूलत्वक्सौधार्कपयसी गुडः॥ भल्लातकास्थिकासी सलेपो भिन्द्याच्छिलामपि ॥ २६ ॥ बहिर्मार्गाश्रितं ग्रन्थि किं पुनःकफसम्भवम्।।दीर्घकालस्थितंग्रन्थिमेभिभिन्द्याच्चभेषजैः॥२७॥
जमालगोटेकी जड चीतेकी जड छाल थोहरका दूध आंकका दूध गुड भिलावेकी गुठली कसीश इन्होंका लेप शिलाकोभी भेदित करताहै ॥ २६ ॥ फिर बाह्यमार्गोंमें आश्रित हुई और कफ से उपजी ग्रंथिको क्या नहीं भेदनकर सक्ताहै अर्थात्, तत्काल भेदित करता है और दीर्घकालतक स्थितहुये ग्रंथि विसर्पको इन औषधोंकरके भेदित करै ॥ २७॥
मूलकानांकुलत्थानांयूपैःसक्षारदाडिमैः ॥ गोधूमान्नैर्यवान्नश्च ससीधुमधुशर्करैः ॥२८॥ सक्षौद्रैर्वारुणीमण्डैातुलुङ्गरसान्वितैः॥ त्रिफलायाःप्रयोगैश्चपिप्पल्या:क्षौद्रसंयुतैः॥२९॥ देवदारु
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