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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (६६७) मौक्तिकमेव वा ॥ १३॥ शंखः प्रवालं शुक्तिर्वा गैरिकं वा घृ. तान्वितम् ॥
और वडकी ताजी छाल केलाके वृक्षका अंतर्भाग ॥ १२ ॥ कमलको तांत कमलकंद इन्होंमें · सो १०० बार धोया व्रत मिला लेप करना हितहै और शीतल किया कमलिनीका कीचड अथवा पानीमें पिसाहुआ मोती ॥१३ ॥ अथवा पिसाहुआ शंख व मूंगा व सीपी अथवा घृतमें पिसाहु गेरू ये लेपमें हितहैं ।
त्रिफलापद्मकोशीरसमझाकरवीरकम् ॥ १४॥
नलमूलान्यनन्ता च लेपः श्लेष्मविसर्पहा ॥ और त्रिफला पद्माख खश मंजीठ कनेर ।। १४॥ वन्डकी जड धमामा इन्होंका लेप कफके विसर्पको हरताहै।
धवसप्ताह्वखदिरदेवदारुकुरण्टकम् ॥१५॥ समुस्तारग्वधले वर्गो वा वरणादिकः॥आरग्वधस्य पत्राणि त्वचः श्लेष्मान्त कोद्भवाः॥१६॥ इन्द्राणीशाकं काकाहाशिरीषकुसुमानि च ॥ सेकत्रणाभ्यङ्गहविलेपचूर्णान्यथायथम् ॥ १७ ॥ एतैरेवौषधैः कुर्याद्वायौ लेया घृताधिकाः ।।
और धायके फूल शातला खैर देवदार कुरंटा ॥ १५ ॥ नागरमोथा अमलतासका लेप अथवा वरणादिगणका लेप अथवा अमलतासके पत्ते और लसोडाकी छाल ॥ १६ ॥ इंद्रायण शाकवृक्ष मकोह शिरसके फूल इन्होंका लेप हितहै, और इन्हीं करके यथायोग्य सेंक घावपै मालिश करनेके योग्य घृत लेप चूर्ण इन्होंको करै ।। १७ ॥ और जो वायुके विसर्पमें लेप कहेहैं, ये अत्यन्त घृत से संयुक्त करके यहांभी वर्तने हितहैं ॥
कफस्थानगते सामे पित्तस्थानगतेऽथवा ॥१८॥आशीतोष्णा हिता रूक्षा रक्तपित्ते घृतान्विताः॥अत्यर्थशीतास्तनवस्तनुव स्त्रान्तरास्थिताः॥१९॥ योज्याः क्षणे क्षणेऽन्येऽन्ये मन्दवी
र्यास्त एव च ॥ संसृष्टदोषे संसृष्टमेतत्कर्म प्रशस्यते ॥२०॥ और कफके स्थानमें प्राप्त हुये और आमसे संयुक्त वायुमें कछुक शीतल और रूक्ष और गरम् लेप हितहै और पित्तस्थानमें प्राप्त हुये ॥ १८ ॥ रक्तपित्तमें घतसे अन्वित और अत्यन्त शीतल और अत्यन्त सूक्ष्म और मिहीन वस्त्रके अंतर करके स्थित ॥१९॥ लेप हितहै और क्षण क्षणमें अन्य अन्य लेप प्रयुक्त करने योग्य हैं, क्योंकि फिर प्रयुक्त किये लेप मंदवीर्यवाले होजातेहैं और मिलेहुये दो दोषोंके विसर्पमें अथवा सन्निपातसे उपजे विसर्पमें मिश्रित करी चिकित्सा हितहै॥२॥
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