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अष्टाङ्गहृदये
(६६६)
दुरालभां पर्पटकं गुडूची विश्वभेषजम् ॥
पाक्यं शीतकषायं वा तृष्णावीसर्पवान्पिवेत् ॥६॥ धमासा पित्तपापडा गिलोय सुंठ इन्होंके क्वाथको अथवा शीतकपायको तृषारोगी और विसर्प रोगी पीवै ॥ ६ ॥
दार्वीपटोलकटुकामसूरत्रिफलास्तथा ॥
सनिम्बयष्टीत्रायन्तीः कथिता घृतमूछिताः॥७॥ दारुहलर्दा परवल कुटकी मसूर त्रिफला नींब मुलहटी त्रायमाण इन्होंके काथमें घृतको मिलाके पावै ॥ ७ ॥
शाखादुष्टे तु रुधिरे रक्तमेवादितो हरेत् ॥
त्वङ्मांसस्नायुसंक्लेदो रक्तक्लेदाद्धि जायते ॥८॥ ___ शाखास्थानों में दुष्ट हुये रक्तमें प्रथम रक्तको निकासै, और रक्तके क्लेदसे त्वचा मांस नस इन्होंको संक्लेद उपजता है ॥ ८॥
निरामे श्लेष्मणि क्षीणे वातपित्तोत्तरे हितम् ॥
घृतं तिक्तं महातिक्तं शृतं वा त्रायमाणया ॥९॥ __ आमसे रहित और वातपित्तकी अधिकतावाले कफकरके क्षीण मनुष्यके अर्थ तिक्तवृत अथवः महातिक्तघृत अथवा त्रायमाण करके सिद्ध किया घृत हित है ॥ ९॥
निर्हतेऽने विशुद्धेऽन्तदोषे त्वग्मांससन्धिगे।
बहिःक्रिया प्रदेहाया सद्यो वीसर्पशान्तये ॥ १०॥ निकसे हुये रक्तमें और भीतरसे शुद्ध हुये और त्वचा मांस संधिमें प्राप्त हुये दोषमें लेप सेक आदि बाहिरकी क्रिया शीघ्रही विसर्पकी शांतिके अर्थ श्रेष्टहै ॥ १० ॥
शताहामुस्तवाराहीवंशार्तगलधान्यकम् ॥
सुराह्वा कृष्णगन्धा च कुष्ठे वा लेपनं चले ॥११॥ शोफ नागरमोथा वाराहीकन्द रालवृक्ष नीलाकुरंटा धनियां क्षीरकाकोली सेगवा अथवा कूठ इन्होंका लेप वातके विसर्पमें हितहै ॥ ११ ॥
न्यग्रोधादिगणः पित्ते तथा पद्मोत्पलादिकम् ॥ पित्तके विसर्पमें न्यग्रोधाधिगणका लेप तथा पद्मोत्पलादिगणका लेप हितहै ॥ न्यग्रोधपादास्तरुणाः कदलीगर्भसंयुताः॥१२॥ बिसग्रन्थिश्च लेपः स्याच्छतधौतघृताप्लुतः॥ पद्मिनीकर्दमः शीतःपिष्टं
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