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(६६४)
अष्टाङ्गहृदयेसिद्धे मूत्राम्भसि स्नानं कुष्ठतांरिचित्रकैः ॥ ३६॥
कुलत्थनागराभ्यां वा चण्डागुरुविलपने॥ और कूठ अरनी चीता इन्होंकरके सिद्ध किये गोमूत्रमें ॥ ३६ ॥ कुलथी और सूंठ करके सिद्ध किये गोमूत्रमें स्नान करै और लेपमें सरलवृक्ष अगर ये हितहैं ।
कालाजशृङ्गीसरलवस्तगन्धाहयाह्वयाः॥३७॥
एकैषिका च लेपः स्याच्छयथावेकगारजे ॥ और नीलिनी मेढासिंगी सरल वृक्ष अजमोद असगंध ॥ ३७ ।। निशोत इन्होंका लेप एक अंगके शोजेमें हित है।
यथादोषं यथासन्नं शुद्धिं रक्तावसेचनम् ॥३८॥
कुर्वीत मिश्रदोषे तु दोषोद्रेकवलाक्रियाम् ॥३९॥ . और दोपके अनुसार यथायोग्य समीपमें शुद्धि और रक्तमोक्ष ॥ ३८ ॥ इन्होंको करें और मिले हुये दोषमें दोषकी अधिकताके बलसे क्रियाको करै ॥ ३९ ॥
अजाजिपाठाघनपञ्चकोलव्याघीरजन्यःसुखतोयपीताः॥ शोफ त्रिदोषंचिरजंप्रवृद्धं निम्नन्ति भूनिम्बमहौषधैश्च ॥४०॥ अमृताद्वितयं शिवाटिका सुरकाष्ठं सपुरं सगोजलम् ॥ श्वयथूदरकुष्ठपाण्डुताकृमिमहोर्ध्वकफानिलापहम् ॥४१॥ और गरम पानीके संग पान किये जीरा पाठा नागरमोथा पीपल पीपलामूल चव्य चीता सूंठ कटेहली हलदी चिरायता सूंठ ये त्रिदोषके शोजेको पुराने और चिरकालसे उपजे हुये और वृद्धिको प्राप्तहुए शोजेको नाशते हैं ।। ४ ० ॥ गिलोय हरडै विसखपरा देवदार गूगल गोमूत्र यह योग शोजा उदररोग कुष्ठ पांडुरोग कृमिरोग प्रमेह ऊर्ध्वकफ और वातको नाशता है ॥ ४१ ॥
इति निजमधिकृत्य पथ्यमुक्तक्षतजनितेक्षतजं विशोधनीयम्॥ श्रुतिहिमवृतलेपसेकरेकैर्विषजनिते विषजिञ्च शोफइष्टम् ॥४२॥ इस पूर्वोक्त प्रकारकरके दोषसे उपजे शोजेकी अधिकृत चिकित्सा कही, और क्षतसे उपजे शोजेमें रक्तको शोधना हितहै, स्त्राव शीतल वृत लेप सेंक जुलाब करके और विषसे उपजे शोजेमें विषको हरनेवाला औषध वांछित है ॥ ४२ ॥
ग्राम्यानूपं पिशितमबलं शुष्कशाकं तिलान्नं गौडं पिष्टान्नंदधि सलवणं विजलं मद्यमम्लम्॥धानावल्लूरसमशमनमथो गुर्वसात्म्यं विदाहि स्वप्नं रात्रौ श्वयथुगदवान्वर्जयेन्मैथुनं च ॥४३॥
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