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(६४८)
अष्टाङ्गहृदये
ऐसेभी जो कफवातसे उपजा तिलिरोग शांत नहीं होवे तब गुल्मके विधानकरके अग्निकर्म योजित करै ॥ ९६ ॥ नहीं प्राप्तहुआहै पिच्छा और पानी जिसमें और वात कफकी अधिकत . उपजे तिल्लिरोगमें पूर्वोक्त कर्मको करै ॥
पैत्तिके जीवनीयानि सीषि क्षीरबस्तयः॥९७॥
रक्तावसेकः संशुद्धिः क्षीरपानं च शस्यते ॥ __ और पित्तकी अधिकतावाले तिलिरोगमें जीवनीयगणके औषधोंकरके साधित किये घृत और दूधकरके बस्तिकम।।९७रिक्तका निकासना और सम्यक्प्रकारसे शुद्धि और दूधका पान ये श्रेष्ठ हैं।।
यकृति प्लीहवत्कर्म दक्षिणे तु भुजे शिराम् ॥ ९८॥ और यकृत् रोगमें तिल्लिरोगकी तरह कर्म करना योग्य है परंतु दाहिनी भुजामें नाडीको छुटावै ।। ९८!!
स्विन्नाय वृद्धोदरिणे मूत्रतीक्ष्णौषधान्वितम् ॥ सतैलं लवणं दद्यान्निरूहं सानुवासनम्॥९९॥परिसंसीनि चान्नानि तीक्ष्णं
चास्मै विरेचनमांउदावर्त्तहरं कर्म कार्यं यच्चानिलापहम् ॥१०॥ स्विन्न हुये वृद्धोदररोगीके अर्थ गोमूत्र और तीक्ष्ण औषधोंकरके अन्वित किये तेल और सेंधानमकसे अनुवासन सहित निरूहको देवै ॥ ९९ ॥ और इस रोगीके अर्थ अनुलोम करनेवाले अन्न और तीक्ष्ण जुलाब और उदावर्तको हरनेवाला कर्म और वातको नाशनेवाला कर्म ये सब करने योग्य है ॥ १० ॥
छिद्रोदरस्कृते स्वेदाच्छ्रेष्मोदरवदाचरेत् ॥
जातं जातं जलं स्राव्यमेवं तद्यापयद्भिषक् ॥ १०१॥ छिद्रोदरके विना पसीनेसे कफोदरकी तरह चिकित्सा करे और उपजे जलको स्रावित करे, . ऐसे तिस रोगीको वैद्य याप्प अर्थात् कष्टसाध्य बतावै ।। १०१ ॥
अपां दोषहराण्यादौ योजयेदुदकोदरे॥ मूत्रयुक्तानि तीक्ष्णानि विविधक्षारवन्ति च ॥१०२॥ दीपनीयैः कफनैश्च तमाहारैरूपाचरेत् ॥
जलोदरमें प्रथम जलके दोषोंको हरनेवाली और गोमूत्रसे संयुक्त और तीक्ष्णरूप और अनेक .प्रकारके खारोंसे संयुक्त औषधोंको प्रयुक्त करै ॥ १०२ ॥ दीपनीय और कफको नाशनेवाले भोजनोंकरके तिसको उपाचरित करै ॥
क्षारं छागकरीषाणां शृतं मूत्रेऽग्निना पचेत् ॥ १०३ ॥ घनी भवति तस्मिंश्च कर्षांशं चूर्णितं क्षिपेत् ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलं शुण्ठीलवणपञ्चकम् ॥१०४॥ निकुम्भकुम्भत्रिफलास्वर्णक्षीरी
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