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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (६४९) विषाणिकाः ॥ स्वर्जिकाक्षारषड्ग्रन्थासातलायवशूकजम् ॥१०५॥ कोलाभा गुटिकाः कृत्वा ततः सौवीरकाप्लुताः ॥ पिबेदजरके शोफे प्रवृद्धे चोदकोदरे ॥ १०६ ॥
और बकराकी मेगनोंके गोमूत्रमें पके हुये खारको अग्निकरके पकावै ॥ १०३ ॥ जब करडा होजावे तब तिसमें एक एक तोले भर प्रमाणसे पीपल पीपलामूल सूंठ पांचोंनमक ॥ १०४ ॥ जमालगोटाकी जड निशोत त्रिफला चोष मेंढासिंगी साजीखार वच शातला इंद्रजवके चूर्णको मिलावै ॥ १०५ ॥ बेरकी गुठलीके समान गोलियां बनाके कांजीमें आलोडित कर अदरकमें शोजेमें और बढे हुये जलोदरमें पीवै ॥ १०६ ।।
इत्यौषधैरप्रशमे त्रिषु वृद्धोदरादिषु ॥
प्रयुञ्जीत भिषक् शस्त्रमार्तबन्धुनृपार्थितः ॥ १०७॥ इन औषधोंकरके जो वृद्धोदर छिद्रोदर जलोदर इन्होंमें शांति नहीं होवे तब पीडित हुये बंधु और राजा करके आर्थित हुआ वैद्य शल्यको प्रयुक्त करै ॥ १०॥ स्निग्धस्विन्नतनो भेरधोवृद्धक्षतान्त्रयोः॥पाटयेदुदरं मुक्त्वा वामतश्चतुरङ्लात् ॥ १०८ ॥ चतुरङ्गुलमानं तु निष्कास्यान्त्राणि तेन च॥ निरीक्ष्यापनयेहालमललेपोपलादिकम् ॥१०९॥ छिद्रे तु शल्यमुद्धृत्य विशोध्यान्त्रं परिस्रवम्॥ मर्कोटैर्दशयेच्छिद्रं तेषु लग्नेषु चाहरेत्॥११०॥ कार्य मोऽनुचान्त्राणि यथास्थानं निवेशयेत्॥अक्तानि मधुसर्पिामथ सीव्येबहिणम् ॥ १११॥ ततः कृष्णमृदालिप्य बनीयाद्यष्टिमिश्रया ॥ निवातस्थः पयोवृत्तिः स्नेहद्रोण्यां वसेत्ततः॥ ११२ ॥ स्निग्ध और स्विन्नशरीरवाले तिस रोगीकी नाभिके नीचे बद्धोदरमें और छिद्रोदरमें वायीं तरफ ४ अंगुलको छोडके ४ अंगुलप्रमाण पेटको फाडै ॥ १०८ ॥ तिस छिद्रकरके आंतोंको बाहिर निकास और देख तिन्होंमेंसे बाल मैल लेप पत्थरकी कणिका आदिको निकासै ॥ १०९ ॥ यह वृद्धोदरकी चिकित्सा कही और छिद्रोदरमें शल्यको निकास और आंतको शोधित कर और मर्कोट करके झिरते हुये छिद्रको दंशित करै, और तिन मर्कोटोंमें भक्षित करनेको लगे हुयोंमें आहरण करै ।। ११० ॥ पीछे शहद और धृतकरके अभ्यक्तकरी आंतोंको स्थानके योग्य नीचे प्रवेश करे पीछे वाहिरसे घावको सीमै ॥ १११ ॥ पीछे मुलहटीसे मिली हुई कालीमाटीसे लेपकर बांध पीछे वातसे रहित स्थानमें स्थित हुआ और अकेले दूधकोही पीताहुआ वह मनुष्य स्नेहकी द्रोणीमें वास करै ॥ ११२॥
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