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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम्। (६४५) संयुक्त कर और जर्जररूप बना और भीतरकोही धूमा रहै ऐसा दग्ध करै ।।७१॥ पीछे एकतोले भर इस खारको मदिरा दही मंड गरम जल आरष्ट मदिरा आसवके संग पावै॥७.२॥ यह उदररोग गुल्मरोग अष्ठीला तूनी प्रतूनी शोजा हैजा प्लीहरोग हृद्रोग बवासीर उदावर्तको नाशता है ॥ ७३ ॥ जयेदारष्टगोमूत्रचूर्णायस्कृतिपानतः॥सक्षारतैलपानैश्चदुर्बलस्य कफोदरम्॥७४॥ उपनाचं ससिद्धार्थकिण्वैर्बीजैश्च मूलकात् ॥ कल्कितैरुदरस्वेदमभीक्ष्णं चात्र योजयेत् ॥ ७५ ॥ आरिष्ट गोमूत्र चूर्ण अयस्कृति खारसहित तेल इन्होंके पान करके दुर्बल मनुष्यके कफोदरको जीते ॥ ७४ ॥ और इसी दुर्बलका पेट सरसों मदिरासे उपजा द्रव्य सहोजनाके बीज इन्होंके कल्कोंकरके उपनाहित करना योग्यहै और नित्यप्रति पेटपै पसीनेको संयुक्त करै ।। ७५ ॥ सन्निपातोदरे कुर्यान्नातिक्षीणबलानले ॥ दोषोद्रेकानुरोधेन प्रत्याख्याय क्रियामिमाम् ॥७६॥ द्रन्ती दवन्ती फलजं तैलं पाने च शस्यते॥ नहीं हुआहै अत्यन्त क्षीण बल और अग्नि जिसमें ऐसे सन्निपातके उदररोगीके अर्थ दोषकी अधिकताके अनुरोध करके इस क्रियाको अत्यन्त असाध्य जानके करै । ७६ ॥ जमालगोटा और द्रवन्तीके फलसे उपजा तेल पीनेमें श्रेष्ठ है ॥ क्रियानिवृत्ते जठरे त्रिदोषेतु विशेषतः॥७७॥ दद्यादापृच्छयतजातीन्पातुं मद्येन कल्कितम्॥मूलं काकादनीगुञ्जाकरवीरक सम्भवम् ॥ ७॥पानभोजनसंयुक्तं दद्याद्वा स्थावरं विषम् ॥ यस्मिन्वा कुपितः सर्पो विमुञ्चति फले विषम्॥७९॥ तेनास्य दोषसंघातःस्थिरोलीनो विमार्गगः॥बहिःप्रवर्त्तते भिन्नो विषे णाशुप्रमार्थिना ॥८॥तथा बजत्यगदतां शरीरान्तरमेव वा ॥ क्रियाको उल्लंबित करनेवाले उदररोगों और विशेषकरके त्रिदोषसे उपजे उदररोगमें ।। ७७ ।। तिस रोगाके जातिके भाइयोंको अच्छीतरह पूछके काकणंती चिरमठी कनेर इन्होंकी जडको मदिराके संग पान करनेको देवै ॥ ७८ ॥ अथवा पान और भोजनसे संयुक्त किये स्थावरविषको देवै अथवा जिसमें कुपित हुआ सर्प अपने विषको छोडे तिस फलको देव ॥ ७९ ॥ तिस करके इस रोगीका स्थिर और धातु आदिमें लीन और अन्यमार्गमें प्राप्त हुये और आलोडित करनेवाले विषकरके भेदित हुआ वह दोषोंका समूह बाहिर प्रवृत्त होताहै ॥ ८० ॥ तिसप्रकारकरके मनुष्य आरोग्यको प्राप्त होताहै अथवा मृत्युको प्राप्त होता है । हृतदोषं तु शीताम्बुस्नातं तं पाययेत्पयः॥ ८१ ॥ पेया वा त्रिवृतः शाकं मण्डक्या वास्तुकस्य वा ॥ कालशाकं यवाख्यं For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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