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(६४४)
अष्टाङ्गहृदयेजुलाब देवै ॥ ६३ ॥ इन्होंमेंसे एककोईसे दूधकरके अथवा विदार्यादि गणके औषधोंमें सिद्ध किये दूधकरके भोजनकरै, और इस रोगीके पेटको खीर करके उपनाहित करै । ६४ ॥
पुनः क्षीरं पुनर्बस्ति पुनरेव विरेचनम् ॥
क्रमेण ध्रुवमातिष्ठन्यतः पित्तोदरं जयेत् ॥६५॥ फिर दूध फिर बस्तिकर्म फिर जुलाब ऐसा यत्नवाला मनुष्य इस क्रमकरके आचरित करता हुआ पित्तके उदररोगको निश्चै जीतताहै ॥ ६५ ॥
वत्सकादिविपक्कन कफे संस्नेह्य सर्पिषा ॥ स्विन्नं स्नुक्षीरसि. द्धन बलवन्तं विरचितम् ॥ ६६ ॥ संसर्जयेत्कटुक्षारयुक्तैरन्नैः कफापहः॥ कफके उदररोगमें वत्सकादिगणके औषधोंकरके पक्क किये घृतकरके अच्छीतरह स्निग्ध और स्वेदित कर पीछे थूहरके दूधमें सिद्ध किये घृतकरके विरेचित किये बलवान् रोगीको ॥ ६६ ॥ कडुआ और खारसे संयुक्त और कफको नाशनेवाले अन्नोंकरके संयुक्त करै ॥
मूत्रत्यूषणतैलाढयो निरूहोऽस्य ततो हितः॥६७॥ मुष्ककादिकषायेण स्नेहबस्तिश्च तच्छृतः॥भोजनं व्योषदुग्धेन कौलस्थेन रसेन वा ॥६८॥ स्तमित्यारुचिहृल्लासमन्देऽग्नौ मद्यपाय
च॥ दद्यादरिष्टान्क्षारांश्च कफस्त्यानस्थिरोदरे ॥ ६९॥ पीछे इसरोगीको गोमूत्र सूंठ मिरच पीपल तेल इन्होंसे संयुक्त किया निरूहबस्ति हितहै ॥६७ ॥ परन्तु मुष्ककादिवर्गके औषधोंके क्वाथके संग और इन्हीं औषधों में सिद्ध किया अनुवासनबस्ति हितहै और झूठ मिरच पीपल इन्होंसे संयुक्त किये दूधके संग अथवा कुलथीको रसके संग भोजन हितहै ॥ ६८ ॥ स्तिमितपना अरुची थुकथुकी मंदाग्नि इन्होंमें और कफकरके स्त्यान और स्थिर हुये उदररोगमें मदिराके पीनेवालेके अर्थ अरिष्टोंको और खारोंको देवै ॥ ६९ ॥ हिग्रूपकुल्ये त्रिफलां देवदारु निशाद्वयम् ॥भल्लातकं शिग्रुफलं कटुकां तिक्तकं वचाम् ॥७०॥शुण्ठी माद्रीं घनं कुष्ठं सरलं पटुपञ्चकम्॥दाहयेजर्जरीकृत्य दधिस्नेहचतुष्कवत्।।७१॥अन्त धूमं ततः क्षाराविडालपदकं पिबेत् ॥ मदिरादधिमण्डोष्ण जलारिष्टसुरासवैः॥७२॥ उदरं गुल्ममष्ठीलां तून्यौ शोफ विपूचिकाम् ॥ प्लीहहृद्रोगगुदजानुदावतं च नाशयेत् ॥७३॥ हींग पीपल त्रिफला देवदारु हलदी दारुहलदी मिलावाँ सहोजनाका फल कुटकी चिरायता वच ॥७०॥ सूठ काला अतीश नागरमोथा कूठ सरलवृक्ष पांचोनमक इन्होंको दही स्नेह घृत वसासे .
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