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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।। केसूका खार १९२ तोल तेल और घृत ३८४ तोले इन्होंको पकाके गुल्मको शिथिल करनेवाली मात्राको प्रयुक्त करै ।। १२२ ॥
न प्रभिद्येत यद्येवं दद्याद्योनिविरेचनम् ॥ क्षारेण युक्तं पललं सुधाक्षीरेण वा ततः॥२३॥ ताभ्यां वा भावितान्दद्याद्योनौ कटुकमत्स्यकान्॥ वराहमत्स्यपित्ताभ्यां नक्तकान्वा सभावितान्॥२४॥किण्वं वा सगुडक्षारं दद्याद्योनौ विशुद्धयोरक्तपित्तहरंक्षारंलेहयेन्मधुसर्पिषा॥२५॥लशुनमदिरांतीक्ष्णां मत्स्यांश्चास्यै प्रयोजयेतावस्ति सक्षीरगोमूत्रं सक्षारं दासमूलिकम॥२६॥ ऐसे करने करकेभी जो रक्तका गुल्म नहीं भेदित होवे तब योनिजुलाब देवै और खारसे संयुक्त किया धुयेहुये तिलोंका चूर्ण तिस योनिमें देवै अथवा थूहरके दूधसे संयुक्त किये मांसको योनिमें देवै ॥ १२३ ॥ अथवा जवाखार थूहरके दूध करके भावित किये और कटुद्रव्यसे संयुक्त कर, ऐसी मछलियोंको योनिमें देवै अथवा शूकर और मत्स्यके पित्तोंकरके भावित किये मलिन वस्त्रको ॥ १२४ ॥ अथवा गुड और खारसे संयुक्त किया मदिरासे बचा द्रव्य शुद्धिके अर्थ योनिमें देवे, अथवा रक्तपित्तको हरने वाले खारको शहद और घृतमें मिलाके चाटै॥ १२५ ॥ लहान तीक्ष्ण मदिरा मछली दूध और गोमूत्रसे संयुक्त और खारसे संयुक्त और कल्पमें कही दशमालिक बस्तिकर्मको इस स्त्रीके अर्थ प्रयुक्त करै ।। १२६ ॥
अवर्तमाने रुधिरे हितं गुल्मप्रभेदनम् ॥ : और जो रक्तकी प्रवृत्ति नहीं होवे तब गुल्मको भेदनकरनेवाला पदार्थ हित है ।
यमकाभ्यक्तदेहायाःप्रवृत्ते समुपेक्षणम् ॥१२७॥
रसौदनस्तथाऽऽहारः पानं च तरुणी सुरा॥ घृत और तेलकरके अभ्यक्त हुये शरीरवाली स्त्रीके रक्तकी प्रवृत्ति होजानेमें औषधको नहीं देन! हितहै ॥ १२७ ॥ और भोजनमें मांसके रसके संग चावल हितहै और पीनेमें ताजी मदिरा हितहै ।
रुधिरेऽतिप्रवृत्ते तु रक्तपित्तहराः क्रियाः॥१२८॥ कार्या वातरु गार्तायाः सर्वा वातहराः पुनः॥आनाहादावुदावर्त्तवलासध्न्यौ यथायथम् ॥ १२९ ॥
और अत्यंत प्रवृत्त हुये रक्तमें रक्तपित्तको हरनेवाली सब क्रिया ॥ १२८ ॥ करनी योग्य. और वातके शूलसे पीडित हुई तिस स्त्रीके सब वातको हरनेवाली क्रिया तिहहैं और अफारा आदिमें उदारवर्त और कफको नाशनेवाली क्रिया यथायोग्य करनी हितहैं ।। १२९ ।। इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
चिकित्सितस्थाने चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
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