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(६३४) .
अष्टाङ्गहृदयेऔर वमन लंघन पसीना घृतका पान जुलाब इन्होंकरके ॥ ११३ ॥ और बस्तिकर्म जवाखार आसव अरिष्ट गुल्ममें पथ्यरूप भोजन इन्होंकरके जो कदाचित् बद्ध मूलवाला होनेसे कफका गुल्म, शांत नहीं होवे ॥ ११४ ॥ तिस गुल्मके रक्तको निकासके पश्चात् शरआदिकरके दाहको करै ।।
अथ गुल्मं सपर्यन्तं वाससान्तरितं भिषक् ॥११५॥ नाभिवस्त्यन्त्रहृदयं रोमराजी च वर्जयेत् ॥नातिगाढं परिमृशेच्छरेण ज्वलताथवा ॥११६॥लोहेनारणिकोत्थेन दारुणा तैन्दुकेन वा ॥ ततोऽग्निवेगे शमिते शीतै ण इव क्रिया ॥ ११७॥
और पर्यंतसहित गुल्मको वस्त्रसे आच्छादित कर कुशल वैद्य ॥ ११५ ॥ नाभि बस्ति अंत्र हृदय रोमोंकी पंक्ति इन्होंको त्याग जलतेहुये शरकरके अतिगाढपनेसे वर्जित दग्ध करै अथवा ॥ ११६ ॥ लोहेकरके अथवा अरणीके काठकरके अथवा तेंदुके काठ करके दग्ध करै पश्चात् जब अग्निका वेग शांत होजावे तब शीतल लेपोंकरके घावकी तरह क्रिया करै ॥ ११७ ॥
__आमान्वये तु पेयायैः सन्धुक्ष्याग्निं विलंधिते॥
स्वं स्वं कुर्यात्क्रम मिश्र मिश्रदोषे च कालवित् ॥ ११८॥ आमका संयोग होवे तब पेया आदिकरके अग्निको जगाके और विलंवित होवे तब अपने अपने क्रमको दोषके अनुसार करे और मिश्रहुये दोषमें मिश्रक क्रमको कालके जाननेवाला वैद्यकरै ११८
गतप्रसवकालाय नाय गुल्मेऽस्त्रसम्भवे ॥
स्निग्धस्विन्नशरीरायै दद्यात्स्नेहविरेचनम् ॥ ११९॥ स्निग्ध और स्विन्न शरीरवाली और गतहुआ है प्रसवकाल जिसका ऐसी नारीके अर्थ रक्तसे उपजे गुल्ममें स्नेहके जुलाबको देवै ॥ ११९ ॥
तिलक्काथो घृतगुडव्योषभारिजोन्वितः॥
पानं रक्तभवे गुल्मे नष्टे पुष्पे च योषितः ॥ १२० ॥ साधारण स्त्रीके रक्तसे उपजे गुल्ममें और नष्ट हुये ऋतुकालमें घृत गुड सूट मिरच पीपल भारंगी इन्होंके चूर्णसे सहित तिलोंका काथ पीना योग्यहै ॥ १२० ॥
भाङ्गीकृष्णाकरञ्जत्वग्ग्रन्थिकामरदारुजम् ॥
चूर्णं तिलानां काथेन पीतं गुल्मरुजापहम् ॥ १२१ ॥ भारङ्गी पीपल करंजुआकी छाल पीपलामूल देवदारु इन्होंका चूर्ण तिलोंके कायके संग पान किया गुल्मकी पीडाको नाशताहै ॥ १२१ ॥
पलाशक्षारपात्रे द्वे द्वे पात्रे तैलसर्पिषोः॥ गुल्मशैथिल्यजननीं पक्त्वा मात्रां प्रयोजयेत् ॥ १६२ ॥
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