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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (५) विषयी पुरुष निरन्तर वाजीकरणको इच्छाकरे । रसायनके पीछे यह । वाजीकरण उसे कहते हैं कि जिनके शरीरमें थोडा बीर्य्य होवे अथवा वीर्य किसीकारणसे बिगडगया होवे तो उसके बढानकी अथवा शुद्ध करनेके चिकित्सा वाजीकरण कहलाती है । इस प्रकारसे ब्रह्मा आत्रेय आदि मुनि इस आयुर्वेद के इन काय आदि आठ ८ अङ्गोंको कहते हैं जिन काय आदि अङ्गों में चिकित्साकी व्यवस्था की गई है। LL मुनिप्रोक्त चिकित्साका लक्षण इस ग्रन्थ में नहीं कहा । क्योंकि चिकित्साशब्दसेही यह अर्थ होता है कि व्याधिको दूर करनेका यत्न सोही कहते हैं । कि निन्दाक्षमाव्याधिप्रतीकारविचारणासु सा निष्पद्यते " इति । अर्थ - निन्दा क्षमा व्याधिप्रतीकार विचारणा इन अर्थों में चिकित्सा शब्दकी शक्ति है । किंच | 1 " कितेर्धातोर्व्याधिप्रतीकार एवास्य व्युत्पादितत्वात् " । कित् धातुसे व्याधिप्रतीकार अर्थमंही व्याकरणशास्त्रमें चिकित्साशब्दका प्रतिपादन किया है ॥ देह दोष और धातु और मल इनका समुदाय है सो तीन दोष आदिकोंको परिगणन करते हैं । ' वायुः पित्तम्' इत्यादि श्लोकों ॥ वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासतः ॥ ६ ॥ वायु और पित्त और कफ यह संक्षेपसे तीनही दोष हैं । शंका | धातुके प्रस्तावमें इन वाता - दिकोंकीभी धातुसंज्ञाही कहनेको योग्य है । धातु संज्ञाही हो । परन्तु रसादिकोंसे पैदा हुवा जो दूषण उन दूषणोंसे विकृतस्वभाव होके वातादिकभी विकार करनेमें समर्थ होते हैं इस बात के प्रसिद्ध करनेके लिये दोषसंज्ञासे वातादिकोंका निर्देश है । और चरकमुनिने भी इनकी दोषसंज्ञाही कही हैं। कि “वायुः पित्तं कफश्चेोक्तः शरीरे दोषसंग्रहः" इति । पृथक् पदोंसे इनका कथन शरीरमें प्राधान्य दिखलाने के लिये है । और कोई आचार्य चौथा रक्तकोभी दोष मानते 1 तीनं वात आदिही दोष हैं चौथा नहीं हैं यह कथन संक्षेपसे है । और सन्निपात क्षय समता आदिके भेदसे अलग अगल हुए और तारतम्यकी किये गये अनन्तभावको प्राप्त होते हैं | | परन्तु निष्कर्षसे तौ विस्तारसे तौ संसर्ग कल्पनासे कल्पित विकृताऽविकृता देहं घ्नन्ति ते वर्त्तयन्ति च । अपने स्वभावसे गिरे हुये यह दोष देहको जीवितसे हीन करते हैं और अनुकूल अशुद्ध स्वभाव होके फिर देहके वर्त्तनको करवाते हैं और विकृतदोषोंके अवस्थानमें नित्य यत्नवान् मनुष्य रहे । जो यत्नवान् न रहेगा तो बडा प्रत्यवाय अर्थात् कालान्तर में रोगोंका असाध्यभाव हो जावेगा । अब व्यापकभी दोषोंके प्रधानस्थानों को कहते हैं । 1 ते व्यापिनोऽपि हृन्नाभ्योरधोमध्योर्ध्वसंश्रयाः ॥ ७ ॥ यद्यपि यह तीनों दोष व्यापक हैं तथापि विशेषकरके नाभिसे नीचे नीचे देशमें वायुक For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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