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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टाङ्गहृदयेनिवास है । और नाभिसे ऊपर हृदयसे नीचे नीचे देशमें पित्तका निवास है और हृदयसे ऊपर २ कफका स्थान है। यद्यपि यह तीनों दोष सब कालमें रहनेवाले हैं तथापि इनके नियत समयोंको दिखलाते हैं। ‘वयोऽहोरात्रि ' इस वृत्तार्द्धसे । " वयोऽहोरात्रिभुक्तानां तेऽन्तमध्यादिगाः क्रमात् ॥ वय १ और दिन २ और रात्रि ३ और भोजन ४ इन चारोंके अन्तमें और मध्यम और आदिमें क्रमसे वात और पित्त और कफ इनका कोपकाल होता है । तिससे यह अर्थ सिद्ध हुवा कि वय जो पुरुषका आयु अर्थात् बाल और युवा और वृद्ध इन नामोंका देहमें व्यवहारका करवानेवाला जो जीवितकाल, तिसके अन्तमें अर्थात् पिछले भागमें, वातका कोपकाल होताहै और मध्यभागमें, पित्तका कोपकाल होता है । और प्रथम भागमें, कफका कोपकाल होता है और इस ही तरह दिन और रात्रि इनके अन्त मध्य आदिमें वातआदिकोंका क्रमसे कोपकाल जाना चाहिये । और आहारके अन्तमें जठराग्निके संयोगसे रसोंकी जीणप्राया अवस्था वायुका कोपकाल होता हैं । और आहारके मध्यमें जठराग्निके संयोगसे रसोंकी विदाहकी अवस्था पित्तका कोपकाल होता है। और आहारकी आद्यावस्थामें रसोंका मधुरीभाव होनेसे कफका कोपकाल होता है। यद्यपि आहारकी जठराग्निके संयोगसे बहुतसी सूक्ष्माअवस्थाओंकाभी सम्भव है । तथापि इनहीं अवस्थाओंका बहुत उपयोगित्व होनेसे इनहीं अवस्थाओंका कथन है । सो ही कहा है कि "एता एव तिस्रोऽवस्थाः स्वकर्म दर्शयन्ति " इति । अर्थ । यही तीन अवस्था अपने कर्मको दिखलाती हैं । सो ही तीनों अवस्थाओंके कर्मोंको आगे वर्णन करेंगे। .. अब अग्निके स्वरूपको कहते हैं तैर्भवेत् ' इसवृत्तार्द्धसे. तैर्भवेद्विषमस्तीक्ष्णो मन्दश्चाग्निः समैः समः॥८॥ वात पित्त कफ इनसे मनुष्यका जठराग्नि क्रमसे विषम तीक्ष्ण मन्द होता है । यह सब दोष शरीरमें अवश्य रहतेहैं क्योंकि इकडे होके ही शरीरके जननमें समर्थ होते हैं। अन्यथा नहीं । और एक एक दोषकी कारणताके कथनसे तिस २ दोषकी उत्कर्षतासे तिस तिस अग्निके स्वरूपको जाना चाहिये । जैसे कि वातके उत्कर्षसे जठराग्नि विषम होताहै । और पित्तके उत्कर्षसे जठराग्नि तीक्ष्ण होताहै और कफके उत्कर्षसे जठराग्नि मन्द होताहै । और जब सम अर्थात् हानि और उत्कर्षसे हीन, यह सब दोष होतेहैं तब जठराग्नि सम होताहै इनका लक्षण अङ्गविभाग शारीरमें कहेंगे। और जहां २ दोषोंका उत्कर्ष होताहै तहां बुद्धिमान् वैद्य अपनी बुद्धिसे विचारलेवें जैसे वात और १ आदौ षड्समप्यन्नं मधुरीभूतमीरयेत् ॥ फेनीभूतं कर्फ यातं विदाहादम्लतां ततः ॥ पित्तमामाशय कुय्यांच्यवमानं च्युतं पुनः । अमिना शोषितं पूर्व पिण्डितं कटुमारुतम् ॥ इति ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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