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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (६०३) कपोतवङ्कामूलं वा पिबेदेकं सुरादिभिः ॥३२॥ तत्सिद्धं वा पिबेत्क्षीरं वेदनाभिरुपद्रुतः ॥ हरीतक्यस्थिसिद्धं वा साधितं वा पुनर्नवैः॥ ३३॥ क्षीरानभुरबर्हिशिखामूलं वा तण्डुलाम्बुना॥ मूत्राघातेषु विभजेदतःशेषेष्वपि क्रियाम् ॥ ३४ ॥
अथवा अकेली ब्राह्मीके जडको मदिराआदिके संग पावै ॥ ३२ ॥ अथवा पीडासे दुःखित हुआ मनुष्य ब्राह्मीके जडमें सिद्ध हुए अथवा बडीहरडैकी गुठलीमें सिद्ध हुए अथवा नवी औषधमें सिद्ध किये दूधको पीवै ॥ ३३ ॥ अथवा दूधके संग अन्नको खाता हुआ मनुष्य मोरशिखाकी जडको चावलोंके पानीके संग पीवै, इस पूर्वोक्त चिकित्सितसे यथायोग्य शेषरहे मूत्राघातोंमें क्रिया का विभाग करै ॥ ३४ ॥
बृहत्यादिगणे सिद्ध द्विगुणीकृतगोक्षुरे ॥ तायं पयो वा सर्पि
र्वा सर्वमूत्रविकारजित् ॥३५॥. दुगुनें गोखरूसे संयुक्त किये बृहत्यादिगणके औषधोंमें सिद्ध किया पानी अथवा दूध अथवा घृत सब मूत्रोंके विकारोंको जीतताहै ॥ ३५ ॥
देवदारुं घनं मूर्वां यष्टी मधु हरीतकीम्॥मूत्राघातेषु सर्वेषुस राक्षीरजलैः पिबेत् ॥ ३६ ॥ देवदार नागरमोथा मूर्वा मुलहटी शहद हरडै इन्होंको मदिरा दूध पानीके संग सब प्रकारके. मूत्राघातोंमें पीवै ॥ ३६॥
रसंवा धन्वयासस्य कषायं ककुभस्य वा॥सुखाम्भसा वा त्रिफलां पिष्टां सैन्धवसंयुताम् ॥३७॥ व्याघ्रीगोक्षुरकक्काथे यवा गू वा सफाणिताम् ॥ क्वाथे वीरतरादेर्वा ताम्रचूडरसेऽपि वा ॥३८॥ अद्याद्वीरतरायेन भावितं वा शिलाजतु ॥
धमासाके रसको अथवा कौह वृक्षके काथको अथवा सेंधानमकसे संयुक्त करी और पीसीहुई त्रिफलाको गरमपानीके संग पीवै ॥ ३७॥ अथवा कटेहली और गोखरूके क्वाथमें सिद्धकरी और राबसे संयुक्त यवागूको पीये, अथवा वीरतर्वादिगणके औषधोंके काथमें अथवा मुरगाके मांसके रसके काथमें सिद्ध करी पेयाको पावै ॥ ३८ ॥ अथवा वीरतर्वादिगणके औषधोंके क्वाथमें भावित करी शिलाजीतको खावै ॥
मयं वा निगदं पीत्वा रथेनाश्वेन वा व्रजन् ॥३९॥
शीघ्रवेगेन संक्षोभात्तथास्यच्यवतेऽश्मरी॥ अथवा पुरानी मदिराका पान करके पश्चात् शीघ्रवेगवाले घोडोंकरके वा रथकरके गमनकरै ॥ ३९ ॥ तिसप्रकार करके संक्षोभसे मनुष्यकी पथरी झिरजातीहै ।।
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