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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (५९१) प्तिकरं परम् ॥२९॥ शूलगुल्मोदरश्वासकासानिलकफापहम्॥ सबीजपूरकरसे सिद्धं वा पाययेदृतम् ॥३०॥ तैलमभ्यञ्जनाथ च सिद्धमेभिश्चलापहम्॥एतेषामौषधानां वा पिबेच्चूर्णं सुखाम्बुना ॥ ३१ ॥ वातश्लेष्मावृते सामे कफे वा वायुनोदते ॥ अग्नेनिर्वापकं पित्तं रेकेण वमनेन वा ॥३२॥ हत्त्वा तिक्तलघु ग्राहिदीपनैरविदाहिभिः॥ अम्लैः सन्धुक्षयेदग्निं चूर्णैः स्लेहैश्च तिक्तकैः॥३३॥ पंचमूल हरडै सुंठ मिरच पीपल पीपलामूल सेंधानमक रायशण बकरीका दूध गायका दूध जीरा पायविडंग कचूर इन्होंकरके ॥ २७ ॥ अथवा सफेद अरंडकरके और रिजोरेके स्वरसकरके अथवा अदरखके स्वरसकरके और सूखीमूली बेर विजोरा चूका अन्नार इन्होंके स्वरसोंकरके ॥२८॥ और तक दहीका पानी मदिराका मंड साधारणकांजी तुषोदककांजी इन्होंकरके पक किया घृत अग्निको अत्यंत दप्ति करताहै ॥ २९ ॥ और शूल गुल्मोदर श्वास खांसी कफ इन्होंको नाशताहै, अथवा विजोरेके रसमें सिद्ध किये प्रतका पान करावै ॥ ३०॥ अथवा इन पंचमूल आदि औषधोंमें सिद्ध किया तेल मालिश करनेसे वायुको नाशताहै, अथवा इन औषधोंके चूर्णको गरम पानीके संग पावै ॥ ३१ ॥ अथवा कफकरके आवृत हुये वातमें अथवा आमकरके सहित कफमें अथवा वायुकरके उद्धृतमें अग्निको प्लावितकरनेवाले पित्तको जुलाब करके अथवा वमनकरके ॥ ३२ ॥ आहतकर पीछे तिक्त हलका ग्राही दीपन अविदाही अम्लरूप और तिक्तरूप चू! और लेह पदार्थोसे अग्निको जगावै ॥ ३३ ॥
पटोलनिम्बत्रायन्तीतिक्तातिक्तकपर्पटम्॥कुटजस्वक्फलं मूर्वा मधुशिग्रुफलं वचा ॥ ३४ ॥ दारूत्वक्पद्मकोशीरयवानीमुस्त चन्दनम् ॥ सौराष्ट्रयतिविषाव्योषत्वगेलापत्रदारु च ॥३५॥ चूर्णितं मधुना लेह्यं पेयं मयैर्जलेन वा॥हृत्पाण्डुग्रहणीरोगगुल्मशूलारुचिज्वरान ॥३६॥कामलां सन्निपातं च मुखरोगांश्च नाशयेत् ॥ परवल नींब वनप्ला कुटकी चिरायता पित्तपापडा कूडाकी छाल इंद्रजव मूर्वा मोठे सहोजनेका फल वच ॥३४ ॥ दारुहलदीकी छाल कमल खश अजवायन नागरमोथा चंदन फटकरी अतीश सुंठ मिरच पीपल दालचीनी इलायची तेजपात देवदारु॥ ३५ ॥ इन्होंका चूर्ण शहदके संग अथवा मदिरा और पानीके संग चाटा और पीया हृद्रोग पांडु ग्रहणीरोग गुल्म शूल अरुचि ज्वर ॥३६॥ कामला सन्निपात मुखरोगको नाशताहै ॥
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