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(५९०)
अष्टाङ्गहृदयेतालीशपत्र चव्य मिरच ये चार चार तोले पीपल और पीपलामूल आठ आठ तोले और सँठ १२ तोले ॥ १६ ॥ दालचीनी तेजपात नागकेशर खश ये एक एक तोले इन सबोंका महीन चूर्णकर तिगुने गुडमें मिला और गोलियां बना सब कालमें सेवै ॥१७॥ और मदिरा यूष मांसका रस आरीष्ट दहीका पानी पेया दूधका अनुपान करनेवाला मनुष्य, वात और कफकी प्रकृति वालोंके छार्दै संग्रहणी पशली शूलको जीतता है ॥१८॥ज्वर शोजा पांडुरोग त्वचाका रोग गुल्मरोग पानात्यय बवासीर प्रसेक पीनस श्वास खांसीकी निवृत्तिके अर्थ ॥ १९ ॥ रांठके स्थानमें हरडैको देवै
और इसीरोगमें विष्ठाके बंधेमें और पित्तसे उपजे छर्दि आदिमें चौगुनी मिसरीसे संयुक्त ॥२०॥ गोलियां करनी योग्यहैं अथवा पकेहुये गुडकरके अथवा मिसरीकरके बनीलई गोलियां अग्निके संपर्कसे अत्यंत हलकेपनेको सेवतीहैं ॥ २१ ॥
अथैनं परिपक्काममारुतग्रहणीगदम्॥दीपनीययुतं सर्पिः पाययेदल्पशो भिषक् ॥२२॥किञ्चित्सन्धुक्षिते त्वौ सक्तविण्मूत्र मारुतम्॥व्यहं व्यहं वा संस्नेह्य स्विन्नाभ्यक्तं निरूहयेत्॥२३॥ तत एरण्डतैलेन सर्पिषा तैल्वकेन वा॥ लक्षारेणानिले शान्ते स्त्रस्तदा विरेचयेत् ॥ २४॥ परिपकहुये आमवाले और वायुके संग्रहणी रोगवाले इस मनुष्यको दीपनीय औषधोंकरके युक्त किया घृत अल्प अल्प पान कराना चाहिये ।। २२ ॥ कछुक दीपित हुई अग्निमें बंध हुये विष्ठा मूत्र वायुसे संयुक्त और स्नेहित करके पश्चात् स्वेदित अभ्यक्त मनुष्यको.निरूहवस्तिसे संयुक्त करै ।॥ २३ ॥ पश्चात् वायुकी शांतिमें अरंडके तेल करके अथवा जवाखारसे संयुक्त करै हिंगणवेटेके घृत करके झिरेहुये दोषोंवाले तिस मनुष्यको जुलाब देवै ॥ २४ ॥
शुद्धरूक्षाशयं बद्धवर्चस्कं चानुवासयेत् ॥ दीपनीयाम्लयातन सिद्धतैलेन तं ततः॥२५॥ निरूढं च विरिक्तं च सम्यक्चाप्यनुवासितम्॥ लध्वन्नप्रतिसंयुक्तं सर्पिरभ्यासयेत्पुनः॥२६॥ शुद्ध और रूक्ष आशयवाले बद्धविष्ठावाले मनुष्यको दीपनीय अर्थात् सूंठ आदि और विजोरा आदि और बातको नाशनेवाले औषधोंमें सिद्धकिये तेल करके अनुवासित करै ॥२५॥ निरूढको और विरेचन लियेको और अच्छीतरह अनुवासित कियेको हलके अन्नसे संयुक्त किये घृत बारंबार अभ्यास करायै ॥२६॥
पञ्चमूलाभयाव्योषपिप्पलीमूलसैन्धवैः॥ रानाक्षीरहयाजाजी विडङ्गशठिभिघृतम्॥२७॥शुक्लेन मातुलुङ्गस्य स्वरसेनाकस्य वा॥शुष्कमूलककोलाम्लचुक्रिकादाडिमस्य च ॥ २८ ॥ तक मस्तुसुरामण्डसौवीरकतुषोदकैः॥काञ्जिकेन चतत्पक्वमग्निदी
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