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(५८०)
अष्टाङ्गहृदयेकुटकी कूडाकी छाल मुलहटी त्रायमाण अनार इन्होंके अंकुरोंकरके और दही अनार इन्होंसे संयुक्त पेया विलेपी-खलक इन्होंको करै ॥ ६५ ॥ और तैसेही कैथ बेलगिरी आंब जामनका गूदा इन्होंकरके पेया विलेपी खलकको कल्पितकरै ।।
अजापयः प्रयोक्तव्यं निरामे तेन चेच्छमः ॥ ६६ ॥
दोषाधिक्यान्न जायेत बलिनं तं विरेचयेत् ॥ और आमसे रहित अतिसार बकरीके दूधको प्रयुक्त करै, तिसकरके जो शांति ॥६६॥दोपकी अधिकतासे नहीं होवे तिस बलवाले रोगीको जुलाब देवै ॥
व्यत्यासेन शकृद्रक्तमुपवेश्येत योऽपिवा ॥६७॥ पलाशफल निर्वृहं युक्तं वा पयसा पिवेत्॥ततोऽनु कोष्णं पातव्यं क्षीरमेव यथावलम् ॥६॥प्रवाहिते तेन मले प्रशाम्यत्युदरामयः॥पलाशवत्प्रयोज्या वा त्रायमाणा विशोधनी ॥६९ ॥ व्यत्यासकरके जो रोगी रक्तसहित विष्टाको गुदाकरके निकासै ॥ ६७ ॥ वह पलाशके बीजोंके काथको पावै अथवा दूधके संग पूर्वोक्त क्वाथको पावै पश्चात कुछेक गरम किया दूध बलके अनुसार पान करना योग्यहै ॥६८॥ तिसकरके निकसे हुये मलमें अतिसार शांत होताहै और पलाशकी तरह शोधनकरनेके अर्थ त्रायमाणभी प्रयुक्त करना योग्यहै ॥ ६९ ॥
संसाँ क्रियमाणायां शूलं यद्यनुवर्तते॥त्रुतदोषस्य तं शीघ्रं यथावह्नयनुवासयेत् ॥ ७०॥ शतपुष्पावरीभ्यां च बिल्वेन मधुकेन च ॥ तैलपादं पयोयुक्तं पक्वमन्वासनं घृतम्॥७१॥ अशान्तावित्यतीसारे पिच्छाबस्तिः परं हितः ॥ फिरे हुये मलवाले अतिसार रोगीको संसर्ग हुये क्रियमाण क्रियामें जो शूल अनुवर्तित होवे तो तिसरोगीको अग्निके अनुसार शीघ्र अनुवासितकरै ।। ७० ॥ सौंफ और शतावरी करके बेलगिरी और मुलहटी करके चौथाई तेलसे संयुक्त और दूधसे संयुक्त पक्क किया घृत अन्वासन कहाताहै ॥ ७१ ॥ इसप्रकार करके नहीं शांतहुये अतिसारमें पिच्छाबस्ति परम हितहै ॥
परिवेष्टय कुशैरार्द्ररावृन्तातिशाल्मलेः॥७२॥ कृष्णमृत्तिकया लिप्य स्वेदयेदोमयाग्निना॥ मृच्छोषे तानि संचद्य तत्पिण्डंमुष्टिसम्मितम् ॥७३॥ मर्दयेत्पयसाप्रस्थे पूतनास्थापयेत्ततः ॥ नतयष्टयाह्वकल्काज्यक्षौद्रतैलवतानु च ॥७४ ॥ स्नातो भुश्रीत पयसा जांगलेन रसेन वा॥७५॥ पित्तातिसारज्वरशोफ
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