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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (५८१) गुल्मसमीरणास्त्रग्रहणविकारान् ॥जयत्ययं शीघ्रमतिप्रवृत्ति विरेचनास्थापनयोश्च बस्तिः॥७६॥
सैंभलके गीले डंठनकी गीली कुशाओंकरके परिवेष्टित कर ॥ ७२ ॥ और काली मट्टी करके लेपित कर पीछे गोबरकी अग्निकरके स्वेदित करै पीछे मट्टीके सूखजानेमें तिन पूर्वोक्त औषधोंको कूट तिस चार तोले प्रमाणित पिंडको ।। ७३ ॥ ६४ तोलेभर दूधमें मर्दित करै, पछि छाने हुयेमें तगर मुलहटी घृत शहद तेल इन्होंकरके आस्थापितकरै ॥ ७४ ॥ पीछे स्नातहुआ मनुष्य दूधके संग अथवा जांगलदेशके मांसके रसके संग भोजन करै ।। ७५॥ और पित्तका अतिसार ज्वर शोजा गुल्म वातरक्त ग्रहणीविकार इन्होंको और विरेचन और आस्थापनमें दोषोंकी अतिप्रवृत्तिको यह बस्ति जीततीहै ।। ७६ ।।
फाणितं कुटजोत्थं च सर्वातीसारनाशनम् ॥
वत्सकादिसमायुक्तं साम्बष्ठादिसमाक्षिकम् ॥ ७७॥ और कूडाका फाणित सबप्रकारके अतिसारोंको नाशताहै परंतु वत्सकादि और अंबष्ठादि गणोंके औषध और शहदसे संयुक्त फाणित होना चाहिये ।। ७७ ॥
निरग्निरामं दीप्ताग्नेरपि सार्ने चिरोत्थितम् ॥
नानावर्णमतीसारं पुटपाकैरुपाचरेत् ॥ ७८॥ और दीप्त अग्निवालेके पीडा और आमसे रहित और रक्तसे संयुक्त और पुराने और अनेक वर्णवाले अतिसारको पुटपाकोंकरके उपाचरित करै ॥ ७८ ॥
त्वपिण्डादीर्घवृन्तस्य श्रीपर्णीपत्रसंवृतात् ॥ मल्लिप्तादग्निना स्विन्नाद्रसं निष्पीडितं हिमम् ॥ अतीसारी पिवद्युक्तं मधुना सितयाऽथवा ॥७९॥ एवं क्षीरद्रुमत्वग्भिस्तत्प्ररोहैश्च कल्पयेत् ॥ कटुंगत्वग्घृतयुता स्वेदिता सलिलोष्मणा ॥ ८०॥ सक्षौद्रा हन्त्यतीसारं बलवन्तमपि द्रुतम् ॥
और डिंडावृक्षकी छालके कल्कको कंभारीसे आच्छादित किये और माटीसे लेपित किये और अग्निसे स्वेदित किये तिस पिंडसे गीतलरूप निष्पीडित किये रसको शहद अथवा मिसरीसे संयुक्त कर अतिसार रोगी पावै ॥ ७९ ॥ ऐसे दूधवाले वृक्षोंके छाल और अंकुरों करके कल्पित करै
और घृतसे संयुक्त और पानीकी भाफोंसे स्वेदित ॥ ८० ॥ ऐसे कुटकीकी छाल शहदसे संयुक्त करी बलवाले अतिसारकोभी शीघ्र नाशती है ।।
पित्तातिसारी सेवेत पित्तलान्येव वा पुनः॥८॥रक्तातिसारं कुरुते तस्य पित्तं सतृड्ज्वरम्॥दारुणं गुदपाकञ्च तत्रच्छागंपयो
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