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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५७८) अष्टाङ्गहृदयेयोजयेत्स्नेहबस्तिं वा दशमूलेन साधितम् ॥ शठी शताह्वाकुष्ठैर्वा बचया चित्रकेण वा ॥ ५० ॥ प्रवाहणे गुदभ्रंशे मूत्राघाते कटिग्रहे ॥ मधुराम्लैः शृतं तैलं घृतं वाप्यनुवा . सनम् ॥५१॥ दशमूलकरके साधित अथवा कचूर शतावरी कूट करके साधित अथवा बच और चीता करके साधितघृतको और स्नेहबस्तिको प्रयुक्त करै ।। ५० ॥ प्रवाहिका गुदभ्रंश मूत्राघात कटिबढ् इन्होंमें मधुर और अम्लपदार्थोकरके पकाया हुआ घृत तेल और अनुवासनको प्रयुक्त करै ॥ ५१ ॥ प्रवेशयेगुदं ध्वस्तमभ्यक्तं स्वेदितं मृदु ॥ कुर्य्याच गोफणा बन्धं मध्यच्छिद्रेण चर्मणा ॥५२॥ पंचमूलस्य महतः क्वार्थ क्षीरे विपाचयेत् ॥ उन्दुरुं चान्त्ररहितं तेन वातघ्नकल्कवत् ॥ ॥ ५३ ॥ तैलं पचेगुदभ्रंशं पानाभ्यङ्गेन तज्जयेत् ॥ ध्वस्त, अभ्यक्त और स्वेदित कोमल गुदाको प्रवेशित करे, और मध्यमें छिद्रवाले चर्मकरके गोफण बंधको करे ॥ ५२ ॥ बडे पंचमूलके क्वाथको दूधमें पकावै, और तिसी दूधमें आंतोंसे रहित मूसेको पकावै, तिसकरके वातनाशक कल्ककी तरह ॥ ५३ ॥ तेलको पकावै, यह तेल पान और अभ्यंगके द्वारा गुदभ्रंशको जीतताहै ॥ पैत्ते तु सामे तीक्ष्णोष्णवर्ज़ प्रागिव लघनम् ॥ ५४॥ तृड्डा पिबेत्षडगाम्बु सभूनिम्बं ससारिवम् ॥ पेयादि क्षुधितस्यानमाग्निसन्धुक्षणं हितम् ॥ ५५॥ बृहत्यादिगणाभीरुद्विबलासूर्यपर्णिभिः॥ और पित्तकी अधिकतावाले आमातिसारमें तक्षिण और उष्णकरके वर्जित पहिलेकी तरह लंघनको करै ॥ १४ ॥ तृषावाला और पित्तके अतिसारवाला रोगी चिरायता और शारिवासे संयुक्त षडंग पानीको पावै और क्षुधित हुये मनुष्यको पेयाआदिअन्न अग्निके जगानेवाला हितहै ॥१५॥ बृहत्यादिगण शतावरी खरेहटी बडी खरेहटी शूर्पपर्णी इन्होंकरके साधित घृतको पान करावै ॥ पाययेदनुबन्धे तु सक्षौद्रं तण्डुलाम्भसा ॥ ५६ ॥ पाठा वत्सकबीजत्वग्दार्वी ग्रन्थिकशुण्ठि वा ॥ वत्सकस्य फलं पिष्टं सवल्कं सघुणप्रियम् ॥ ५७॥ क्वाथं चातिविषाबिल्बवत्सको दीच्यमुस्तजम् ॥ अथवातिविषामूळनिशेन्द्रयवतार्थ्यजम् ॥ ५४॥ समवतिविषाशुण्ठीमुस्तेन्द्रयवकटफलम् ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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