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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(५७७)
दशमूलके काथमें ॥ ४२॥ और सेंधानमक और पीपल पीपलामूल चव्य चीता सूंठ इन्हों करके सिद्ध किया तेल तत्काल पीडाको नाशता है और सूंठ २४ तोले और पीपलामूल चीता सेंधानमक ये आठ ८ आठ तोले इन्होंके कल्क में || ४३ || दहीकर के सिद्ध किया ६४ तोले तेल अतिसार - की पीडाको नाशता है ||
एकतो मांस दुग्धाज्यं पुरीषग्रहशूलजित् ॥ ४४ ॥ पानानुवासनाभ्यङ्गप्रयुक्तं तैलमेकतः ॥ तद्धि वातजितामध्यं शूलं च विगुणोऽनिलः ॥ ४५ ॥
और मांस दूध घृत ये तीनों मिलेहुये विष्ठा के बंधेको और शूलको जीतते हैं ॥ ४४ ॥ पान अनुवासन अभ्यंग में प्रयुक्त किया तेल सबप्रकारके बातको जीतनेवाले औषधोंमें प्रधान है और कुपित हुवा वायु शूलको करता है ॥ ४५ ॥
धान्वन्तरोपमदद्वै चलो व्यापी स्वधामगः ॥ तैलं मन्दानलस्यापि युक्त्या शकरं परम् ॥ वाय्वाशये सतैले हि बिस्विशी नावतिष्ठते ॥ ४६ ॥
धान्वंतरस्नेहके उपमर्दनकर के चलायमान और सकलशरीर में व्याप्त होनेवाला और पक्काशय में प्राप्ता वायु होजाता है और मंद अग्निवाले मनुष्य केभी युक्तिकरके तेल अत्यन्त सुखको करता है और तेलकरके चिकने वायुके आशय में प्रवाहिका स्थितिको नहीं प्राप्त होती है ॥ ४६ ॥ क्षीणे मले स्वायतनच्युतेषु दोषान्तरेष्वीरण एकवीरे ॥ को निष्टनन्प्राणिति कोष्ठशूली नान्तर्बहिस्तैलपरो यदि स्यात् ॥ ४७ ॥ वायु जब अपने स्थान से भ्रष्ट होजावै तब प्रवाहिकावाला कौन रोगी जीसक्ता है परंतु जो भीतर और बाहिरले तेलको सेवताहो वोही जीवता है ॥ ४७ ॥
गुदरुग्भ्रंशयोर्युज्यात्सक्षीरं साधितं हविः ॥ रसे कोलाम्लचा
य्यदभि पिष्टे च नागरे ॥ ४८ ॥ तैरेव चामलैः संयोज्य सिद्धं सुश्लक्ष्णकल्कितैः ॥ धान्योषणविडाजाजीपाञ्चकोलकदाडिमैः ॥ ४९ ॥
क्षीणहुये मलमें और अपने २ स्थानोंसे छूटे हुये वातसे वर्जित अन्य दोषोंमें और आपही प्रधा नरूप गुदशूल और गुदभ्रंशमें युक्तिकरके दूधमें और पीपल पीपलामूल चन्य चीता सूंठ चूका बिजोरा दही और पिसी हुई सूंठ इन्होंकरके साधित किये घृतको प्रयुक्त करै ॥ ४८ ॥ और इन
औषध करके और सूक्ष्म कल्कित किये धनियां मिरच मनियारीनमक जीरा पीपल पीपलामूल
चव्य चीता सूंठ अनारकरके सिद्ध किया घृत गुदाका शूल और गुदभ्रंशमें हित है ॥ ४९ ॥
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