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(५६६)
अष्टाङ्गहृदययष्टयाह्वपुण्डरीकेण तथा मोचरसादिभिः॥ १२९ ।।
क्षीरद्विगुणितः पक्को देयः स्नेहोऽनुवासनम् ॥ और मुलहटी तथा पौंडाकरके और मोचरस मजीठ चंदन कमल मालकांगनी कमलकेशर इन्द्रजव इन्होंकरके ॥ १२९ ॥ और दुगुने दूधमें पक्क किया स्नेह अनुवासनमें देना योग्य है ।।
मधुकोत्पलरोधाम्बुसमंगाविल्वचन्दनम् ॥१३०॥ चविकातिविषा मुस्तं पाठाक्षारो यवाग्रजः ॥ दारूत्वङ्नागरं मांसी चित्रको देवदारु च॥१३१॥चांगेरीस्वरसे सर्पिः साधितं तैस्त्रिदोषजित् ॥ अर्थोऽतिसारग्रहणीपाण्डुरोगज्वरारुचौ ॥ १३२ ॥ मूत्रकृच्छ्रे गुदभ्रंशे बस्त्यानाहे प्रवाहणे ॥ पिच्छास्त्रावेर्शसां शूले देयं तत्परमौषधम् ॥ १३३॥
और मुलहटी कमल लोध नेत्रवाला मजीठ बेलगिरी चंदन ॥ १३० ॥ चव्य अतीश नागरमोथा पाठा जवाखार दारुहल्दी दालचीनी सुंठ बालछड चीता देवदार ॥ १३१ ।। इन्होंमें और चूकाके स्वरसमें साधित किया घृत त्रिदोषको जीतताहै और बवासीर अतिसार संग्रहणी पांडुरोग ज्वर अरुचिमें।।१३२॥और मूत्रकृच्छ्र गुदभ्रंश बस्तिस्थानमें अफारा प्रवाहिका पिच्छास्त्राव बवासीरके मस्सोंमें शूल इन्होंमें परम औषध है ।। १३३ ॥
व्यत्यासान्मधुराम्लानि शीतोष्णानि च योजयेत् ॥
नित्यमाग्नवलापेक्षी जयत्यर्शकृतान्गदान् ॥ १३४॥ विपरीतपनेकरके मधुर अम्ल शीतल गरमको नित्यप्रति अग्निके बलकी अपेक्षावाला मनुष्य योजित करै ऐसे बवासीरकी पीडाको जीतताहै ॥ १३४ ॥
उदावर्तिमभ्यज्य तैलैः शीतज्वरापहैः ॥ सुस्निग्धैः स्वेदयेत्पिण्डैर्वतिमस्मै गुदे ततः ॥ १३५॥ अभ्यक्तां तत्करांगुष्ठसनिभामनुलोमनीम्॥ दद्याच्छयामात्रिवृदन्तीपिप्पलीनीलिनी फलैः ॥३६॥ विचूर्णितैबिलवणैर्गुडगोमूत्रसंयुतैः ॥ तद्वन्मागधिकारांठगृहधूमः ससर्षपैः ॥१३७॥ एतेषामेव वा चूर्णं गुदे नाड्या विनिर्धमेत् ॥ उदावर्तकरके पीडित मनुष्यको शीतज्वरको नाशनेवाले तैलोंकरके अभ्यक्त कर पीछे अच्छीतरह स्निग्ध किये पिंडोंकरके स्वेदितकरै पश्चात् इस रोगीके अर्थ गुदामें बत्तीको देवै ॥ १३५ ॥ परंतु अभ्यक्त करी और रोगीके हाथके अंगूठाके समान और अनुलोमको करनेवाली और मालविका निशोथ जमालगोटाकी जड पीपल नीलिनी त्रिफला ॥ १३६ ॥ इन्होंका चूर्ण सेंधानमक और
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