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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । । (५६७) कालानमक गुड गोमूत्रसे करीहुई बत्तीको देवे, अथवा पीपल मैनफल घरका धूमा सरसों गुड गोमुत्रसे करीहुई बत्तीको देवै ॥ १३७ ॥ अथवा इन पूर्वोक्त औषधोंके चूर्णको नाडी करके गुदामें चढावै॥
तद्विघाते सुतीक्ष्णं त बस्तिं स्निग्धं प्रपीडयेत् ॥१३८॥ ऋजूकु र्याद्गुदशिरो विणमूत्रमरुतोऽस्य सः॥ भूयोऽनुबन्धे वातनैविरेच्यः स्नेहरेचनैः ॥१३९॥अनुवास्यश्चरौक्ष्याद्धि सङ्गो मारुतवर्चसोः॥
और यह कर्म नहीं करसकै तो तक्ष्णिरूप स्निग्ध बस्तिको प्रपीडित करै ॥ १३८ ॥ सो यह बस्ति इस रोगीके गुदकी शिरा विष्ठा मूत्र अधोवातको अनुलोमित करता है और फिर अनुबंध होजावे तो वातको नाशनेवाले लेह विरेचनोंकरके जुलाब देना योग्यहै ॥ १३९ ॥ अथवा अनुवासित करना योग्यहै क्योंकि रूखेपनेसे अधोवात और विष्टाका बंध पडताहै ॥ त्रिकटुत्रिपटुश्रेष्ठादन्त्यरुष्करचित्रकम् ॥ १४०॥ जर्जरं स्नेहमूत्राक्तमन्तधूमं विपाचयेत् ॥शरावसन्धौ मल्लिप्ते क्षारः कल्याणकाह्वयः॥ १४१॥ स पतिः सर्पिषा युक्तो भक्ते वा स्निग्धभोजिना ॥ उदावर्तविबन्धाशोंगुल्मपाण्डूदरकृमीन् ॥१४२॥ मूत्रसङ्गाश्मरीशोफहृद्रोगग्रहणीगदान् ॥ मेहप्लीहरुजानाहश्वासकासांश्च नाशयेत् ॥
और झूठ मिरच पीपल कालानमक सेंधानमक मनियारीनमक त्रिफला जमालगोटेकी जड भिलावाँ चीता ॥ १४० इन्होंको सिकोरोंके संपुटमें डाल स्नेह और गोमूत्रसे पीसेहुयेको जर्जरी बना और भीतरकोही धूमा रहे ऐसे पकावै, परन्तु सिकोरोंकी संधिको मट्टीके गारेसे लीप देवै यह कल्याणकनामवाला खार ॥ १४ १ ॥ घतके संग पानकिया अथवा चिकने भोजनकरनेवाले मनुष्यके भोजनमें युक्त किया विबंध उदावर्त बवासीर गुल्म पांडुरोग उदररोग कृमिरोगको ॥ १४२ ॥ और मूत्रके बंध पथरी शोजा हृद्रोग ग्रहणीरोग प्रमेह प्लीहरोग अफारा श्वास खांसीको नाशता है।
सर्वं च कुर्याद्यत्प्रोक्तमर्शसां गाढवर्चसाम् ॥ १४३ ॥ और गाढविष्टावाले बवासीरोंमें कहाहै वहभी सब यहां करना योग्यहै ॥ १४३ ।। द्रोणेऽपां पूतिवल्कद्वितुलमथ पचेत्पादशेषे च तस्मिन्देयाशीतिर्गुडस्य प्रतनुकरजसो व्योषतोऽष्टौ पलानि ॥ एतन्मासेन जातं जनयति परमामूष्मणः पक्तिशक्तिं शुक्तं कृत्वानुलोम्यं
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