________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । . (५६५) पेयायूषरसायेषु पलाण्डुः केवलोऽपि वा ॥
स जयत्युल्बणं रक्तं मारुतं च प्रयोजितः ॥ १२१॥ पेया यूष रस आदिमें अकेला प्रयुक्त किया पियाज बढेहुये रक्तको और वायुको जीतताहै॥१२१॥
वातोल्बणानि प्रायेण भवन्त्योऽतिनिःसृते ॥
अशासि तस्मादाधिकं तज्जये यत्नमाचरेत् ॥ १२२ ॥ प्रायताकरके अत्यंत रक्तके निकसनेमें वातकी अधिकतावाले बवासीर होते हैं, तिस हेतुसे वायुके जीतनेमें यत्नको करै ॥ १२२ ॥
दृष्ट्रास्रपित्तं प्रबलमवलौ च कफानिलौ॥
शीतोपचारः कर्त्तव्यः सर्वथा तत्प्रशान्तये ॥ १२३ ॥ बढेहुये रक्तपित्तको देखकर और बलसे रहित कफ और वातको देखकर तिन्होंकी शांतिके अर्थ शीतल उपचार करना योग्य है ॥ १२३ ।।
तावदेवं समस्तस्य स्निग्धोष्णस्तर्पयेत्ततः ॥ रसैः कोष्णैश्च सर्पिमिरवपीडकयोजितैः ॥ १२४॥
सेचयेत्तं कवोष्णैश्च कामं तैलपयोघृतैः ॥ जो ऐसे करनेसे तिस रोगकी शांति नहीं होवे तब स्निग्ध तथा उष्ण रसोंकरके और रोगानुत्पादनीय अध्यायमें कहेहुये और कछुक गरम घृतोंकरके तर्पित करै ॥ १२४ ॥ और तिस रोगीको कछुक गरम किये तेल दूध घृत इन्हों करके सेचितकरै ।
यवासकुशकाशानां मूलं पुष्पं च शाल्मलेः॥१२५॥ न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थशुङ्गाश्च द्विपलोन्मिताः॥ त्रिप्रस्थे सलिलस्यैतक्षीरप्रस्थे च साधयेत् ॥१२६॥ क्षीरशेषे कषाये च तस्मिन्पूते विमिश्रयेत् ॥ कल्कीकृतं मोचरसं समंगां चन्दनोत्पलम् ॥१२७॥ प्रियङ्कु कौटजं बीजं कमलस्य च केसरम् ॥ पिच्छाबस्तिरयं सिद्धः सघृतक्षौद्रशर्करः॥१२८॥प्रवाहिकागुदभ्रंशरक्तस्त्रावज्वरापहः॥
और जवांसा कुशा कांसको जड और सैंभलके फूल ॥१२५॥ और वड गूलर पीपलके अंकुर ये सब आठआठतोले भर ले १९६ तोले पानीमें ६४ तोले दूधमें साधै ॥ १२६ ॥ पीछे दूधके समान शेष रहे काथको वस्त्रआदिसे छानि तिसमें मोचरस मजीठ चंदन कमल ॥ १२७ ।। मालकांगनी इंद्रजब कमल केशरके कल्कको मिलावै, पीछे घृत शहद खांड करके सहित सिद्ध हुआ यह पिच्छाबस्ति कहाताहै ॥ १२८ ॥ यह प्रवाहिका गुदभ्रंश रक्तस्त्राव ज्वरको नाशताहै ॥
For Private and Personal Use Only