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(५६४)
अष्टाङ्गहृदयेतेन वा ॥रोधकट्टङ्गकुटजसमगाशाल्मलीत्वचम् ॥ ११४॥ हिम केसरयष्टयाह्न सेव्यं वा तण्डुलाम्बुना ॥
और लोध तिल मोचरस मजीठ, चंदनको ॥ ११२ ॥ बकरीके दूधके संग रोगीको पान कराके पीछे बकरीके दूधकेही संग शालिचावलोंको खुलावै, अथवा मुलहटी पाख धमांसा दूधी मूर्वा में ॥ ११३ ॥ मिसरी और शहद मिले शीतल पानीके संग अथवा बकरीके दूधके संग पान करना योग्यहै, अथवा लोध कुटकी कूठ कूडा मजीठ सैंभल वृक्षकी छालके काथको चावलोंके पान के संग पीवै ॥११४॥ अथवा चंदन, नागकेसर मुलहटी खशको चावलोंके पानीके संग पीवै।।
यवानीन्द्रयवाः पाठा बिल्वं शुण्ठीरसांजनम् ॥११५॥
चूर्णश्चलेहितः शूले प्रवृत्ते चातिशोणिते ॥ ये सबप्रकारकी बवासीर ग्रहणीदोष आदिमें हित कहेहैं, और अजवायन, इन्द्रजब पाठा बेलगिरी, सूठ रसोतका ॥ ११५ ॥ चूर्ण पानीके संग चाटाहुआ वायुके शूलमें और अतिशय पकाके प्रवृत्तहुये रक्तमें हितहै ॥
दुग्धिकाकण्टकारीभ्यां सिद्धं सर्पिः प्रशस्यते ॥११६ ॥अथवा .. धातकीरोधकुटजत्वक्फलोत्पलालकेसरैर्यवक्षारदाडिमस्व
रसेन वा ॥११७॥
अथवा दूधी और कटेहलीकरके सिद्ध किया वृत रक्तको अतिप्रवृत्तिमें श्रेष्ठहै ।। १ १६॥ अथवा धवके फूल, लोध, इंद्रजव, कमल करके सिद्ध किया घृत हितहै, अथवा नागकेशर जवाखार अनारके स्वरसमें सिद्ध किया घृत हित है ॥ ११७ ।।। शर्कराम्भोजकिंजल्कसहितं सहवा तिलैः ॥ अभ्यस्तं रक्तगुदजानवनीतं नियच्छति ॥ ११८॥ छागादिनवनीताज्यक्षीरमांसानि जांगलः ॥ अनम्लो वा कदम्लो वा सवास्तुकरसो रसः ॥ ॥ ११९ ॥ रक्तशालिः सरो नःषष्टिकस्तरुणी सुरा ॥ तरुणश्च
सुरामण्डः शोणितस्यौषधं परम् ॥ १२० ॥ खांड कमलकी केशरके संग अथवा तिलोंके संग अभ्याससे खाया नोनीघृत रक्तकी बवासीरोंको नाशताहै ॥ ११८ ॥ बकरीका नोनीत शुद्भवत दूध मांसका रस ये परम औषधहैं, अथवा अम्लपनेसे रहित अथवा कुछेक अम्लपनेसे संयुक्त और वथुएके शाकके रससे संयुक्त जांगलदेशके मांसका रस परम औषध है ॥ ११९ ॥ लाल शालिचावल, दहीका सर, शांठिचावल, ताजी मादरा ताजा मदिराका मंड ये सब रक्तके बवासीरमें परम औषधहैं ॥ १२० ॥
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