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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५६२) अष्टाङ्गहृदयेयदि विट्छुथा ॥९६॥श्वेतापीतागुरुस्निग्धा सपिच्छस्तिमितो गुदः॥ हेतुस्निग्धगुरुर्विद्याद्यथास्वं चास्त्रलक्षणात् ॥ ९७॥ धूम्रवर्णवाला खरधरा और रूखा विष्ठा होवे तथा अधोवात नाचेको न निकले ॥९५ ॥ और कटी जंघा गुदामें शूल होवै,और रूक्षणरूप हेतु होवे तहां वातका अनुबंध जानना और जो कफका अनुबंधन होवे तो कोमल और ॥९६॥ श्वेत पीला भारी चिकना विष्ठा होवे पिच्छासे संयुक्त और गीली गुदा होवे स्निग्ध और भारी हेतु होवे और रक्तके लक्षणसे यथायोग्य अनुबंधको जान॥९७॥ दुष्टेऽस्रे शोधनं कार्यं लङ्घनं च यथावलम् ॥ यावच्च दोषैः कालुष्यं सुतेस्तावदुपेक्षणम् ॥ ९८॥ __ वातआदिकरके दूषित हुये रक्तमें बलके अनुसार शोधन वा लंघन करना हितहै और जबतक • दोषोंकरके निर्मलपनेका अभाव हो तबतक रक्तके स्नावको थांभै नहीं ॥ ९८ ॥ दोषाणा पाचनार्थं च वह्निसन्धुक्षणाय च ॥ संग्रहाय च रक्तस्य परं तिक्तैरुपाचरेत्॥९९॥यत्तु प्रक्षीणदोषस्य रक्तं वातोल्बणस्य वा॥स्नेहस्तच्छोधयेयुक्तैः पानाभ्यंजनबस्तिषु ॥१०॥ यत्तु पित्तोल्बणं रक्तं धर्मकाले प्रवर्त्तते॥स्तम्भनीयं तदेकान्तान्न चेद्वातकफानुगम् ॥१०१॥ सकफेऽस्त्रे पिबेत्पाक्यं शुण्ठीकुट जवल्कलम्॥किराततिक्तकं शुण्ठीं धन्वयासं कुचन्दनम्॥१०२ दाऊत्वनिम्बसेव्यानि त्वचं वा दाडिमोद्भवाम् ॥ दोषोंको पकानेके अर्थ और अग्निको जगानेके अर्थ और रक्तके संग्रहके अर्थ तिक्त रसों करके बवासीररोगको उपचारित करै ॥ ९९ ॥ जो फिर प्रक्षीण दोषवालेके अथवा वातकी अधिकतावालेके रक्तका स्त्राव होवे तो पान अभ्यंजन बस्तिमें संयुक्त किये स्नेहोंकरके शोधितकर॥१०॥ जो फिर पित्तसे बढाहुआ रक्त प्रीष्म ऋतुमें प्रवृत्त होवे वह निश्चय स्तंभन करनेके योग्यहै नहीं तो वातकफके अनुबंधवाले रक्तको लंघनआदिकरके चिकित्सितकरै ॥ १०१॥ कफसहित रक्तमें झूठ और कूडाली छालको पीवै अथवा चिरायता, सूंठ, धमासा पीतचंदन, ॥ १०२ ॥ दारुहलदी, नींब कालावाला इन्होंके क्वाथको पावै, अथवा अनारकी छालको पवि ।। कुटजत्वक्पलं तायं माक्षिकं घुणवल्लभाम् ॥ १०३ ॥ पिबेत्तण्डुलतोयेन कल्कितं वा मयूरकम् ॥ अथवा चारतोले इंद्रजव, रसोत, शहद अतीशको ॥ १०३ ॥ चावलोंके पानी के संग पीवै, अथवा कल्कित किये ऊगेको चावलोंके पानीके संग पीवै ॥ तुलां दिव्याम्भसि पचेदाायाः कुटजत्वचः॥१०४।नीरसायां त्वचि काथे दद्यात्सूक्ष्मरजीकृतान् ॥ समाफलिनीमोच For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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