________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (५६१) करताहै और विष्ठा वात कफ पित्तके अनुलोमनमें और निर्मलरूप ॥ ८७ ॥ गुदामें गुदाके मस्से शांत होजाते हैं, और अग्नि बढतीहै ।
उदावतपरीता ये ये चात्यर्थं विरूक्षिताः॥ ८८॥
विलोमवाताः शूलार्तास्तेष्विष्टमनुवासनम् ॥ और उदावर्तकरके संयुक्त और अत्यंत विरूक्षित ॥ ८८ ॥ और विलोमवायुवाले और शूलसे पीडित मनुष्योंकोभी अनुवासनबस्ति देना योग्यहै ।।
पिप्पली मदनं बिल्वं शताह्वां मधुकं वचाम् ॥ ८९ ॥ कुष्ठं शुण्ठींपुष्कराख्यं चित्रकं देवदारु च॥ पिष्ट्वा तैलं विपक्तव्यंदिगुणक्षीरसंयुतम् ॥९०॥ अर्शसांमूढबातानां तच्छ्रेष्ठमनुवासनम् ॥ गुदनिःसरणं शूलं मूत्रकृच्छ्रे प्रवाहिकाम् ॥९१ ॥ कटयू रुपृष्ठदौर्बल्यमानाहं वंक्षणाश्रयम् ॥ पिच्छास्त्रा गुदे शोफं वातवचाविनिग्रहम् ॥ ९२ ॥ उत्थानं बहुशो यच्च जयेत्तच्चानु वासनात् ॥ पीपल, मैनफल, बेलगिरी, शतावरी, मुलहटी, वच, ॥ ८९ ॥ कूठ, कचूर, पोहकरमूल, चीता, देवदारको पीसकर दुगुने दूधसे संयुक्त तेलको पकाना योग्यहै ॥९०॥ यह अनुवासन बवासरिको और मूढवातोंको श्रेष्ठहै और गुदाका निकसना, शूल, मूत्रकृच्छ्र, प्रवाहिका ॥ ९१ ॥ कटि जांघ पृष्टभागकी दुर्बलता और अंडसंधियोंमें आश्रयरूप अफारा, पिच्छालाव, गुदामें शोजा, अधोवात और विष्टाका बंध ।। ९२ ॥ बहुतसे उत्थानको यह तेल अनुवासनकर्मसे जीतता है ॥
निरूह वा प्रयुञ्जीत सक्षीरं पञ्चमूलिकम् ।। ९३ ॥
समूत्रस्नेहलवणं कल्कैर्युक्तं फलादिभिः ॥ अथवा दूधसे संयुक्त और पंचमूलोंसे संयुक्त ॥ ९३ ॥ और गोमूत्र स्नेह नमकसे संयुक्त और पूर्वोक्त फलआदि कल्कोंकरके संयुक्त निरूहबस्तिको प्रयुक्त करै ।।
अथ रक्तार्शसां वीक्ष्य मारुतस्य कफस्य वा ॥ ॥ ९४ ॥
अनुवन्धं ततः स्निग्धं रूक्षं वा योजयेद्धिमम् ॥ पश्चात् रक्तकी बवासीरोंके वायुके व करके अनुबंधको देखकर ॥ ९४ ॥ पश्चात् स्निग्ध रूक्ष अथवा शीतल ऐसी चिकित्साको प्रयुक्तकरै ॥
शकृच्छ्यावं खरं रूक्षमधो निर्वाति नानिलः॥९५॥ कटयूरु गुदशूलं च हेतुर्यदि चरूक्षणम्॥तत्रानुबन्धो वातस्य श्लेष्मणो
For Private and Personal Use Only