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चिकित्सास्थानं भाषाटीका समेतम् ।
( ५३७ )
कफपित्तं समुत्क्लिष्टमुल्लिखेत्तृविदाहवान् ॥२२॥ पीत्वाम्बु शीतं मद्यं वा भूरीक्षुरससंयुतम् ॥ द्राक्षारसं वा संसर्गी तर्पणादि परं हितम् ॥ २३ ॥ तथाग्निर्दीप्यते तस्य दोषशेषान्नपाचनः ॥ और तृपा तथा दाहवाला मदात्ययरोगी अच्छी तरह उत्थित हुये कफपित्तका वमन करें ॥ २२ ॥ परंतु शीतलपानी अथवा बहुतसे ईख के रससे संयुक्त मदिरा अथवा दाखोंके रसका पान करके और मनके पश्चात् पेयाआदि और तर्पण आदि क्रम हितहैं || २३ | ऐसे करनेसे तिसरोगी के दोष करके शेप अन्नको पकानेवाला अग्नि दप्ति होता है ||
कासे सरक्तनिष्ठीवे पार्श्वस्तनरुजासु च ॥ २४ ॥ तृष्णायां स विदाहायां सोशे हृदयोरसि ॥ गुडूचीभद्रमस्तानां पटोल स्याथवा रसम्॥२५॥सशृङ्गवेरं युंजीत तित्तिरिप्रतिभोजनम् ॥ और पित्त मदात्ययमें रक्तका थूकना सहित खांसी होत्रे तथा पशली और स्तनोंमें पीड होवे || २४ || और दाह सहित तृषा होवै, और हृदय तथा छातीमें उक्लेश होवै तब गिलोय और नागरमोथेके रसको अथवा परवलके रसको || २५ || और अदरक से सहित तीतरके मांस के अल्प भोजनको प्रयुक्त करे |
तृष्यते चातिबलवद्वातपित्ते समुद्धते ॥ २६ ॥ दद्याद् द्राक्षारसं पानं शीतं दोषानुलोमनम् ॥ जीर्णेऽद्यान्मधुराम्लेन च्छाग मांसरसेन वा ॥ २७ ॥
और वातपित्तकी अधिकतामें अतितृषावाले मनुष्य के अर्थ || २६ || शीतल और दोषको अनुलोमित करनेवाले दाखों के रसके पानको देवे और तिसके जीर्ण होनेपे मधुर और अम्ल रसकरके अथवा करके मांसके रसकरके भोजन करे ॥ २७ ॥
तृष्यल्पशः पिवेन्मद्यं मेदं रक्षन्बहूदकम् । मुस्तदाडिमलाजाम्बु जलं वा पर्णिनीश्रुतम् ॥ २८ ॥ पटोल्युत्पलकन्दैर्वा स्वभावादेव वा हिमम् ॥
तृषा
और लगनेमें मेदकी रक्षाकरताहुआ रोगी बहुतसे पानीसे संयुक्त करी थोडीसी मदिराको पानकरै अथवा शालपर्णी पृश्निपर्णी मूंगपर्णी माषपर्णी करके पकाये जलको अथवा नागरमोथा अनार धानकी खीलके जलको पीवै ॥ २८ ॥ अथवा परवल और कमलकंदकरके पकाये हुये अथवा स्वभावसे शीतल पानीको पीवै ॥
मद्यातिपानादव्धातौ क्षीणे तेजसि चोद्धते ॥ २९ ॥ यः शुष्कग लताल्वोष्ठो जिह्वां निष्कृत्य चेष्टते ॥ पाययेत्कामतोऽम्भस्तं
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