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(५३८) . .
अष्टाङ्गहृदयेनिशीथपवनाहतम् ॥३०॥ कोलंदाडिमवक्षाम्लचुक्रिकाचुकिकारसः॥ पञ्चाम्लको मुखालेपः सद्यस्तृष्णां नियच्छति ॥३१॥
और मदिराके अत्यंत पीनेसे जलधातु क्षीण होजावे और तेज क्षोभको प्राप्त होजावे ॥२९॥ तब जो सूखेरूप गल तालु ओष्टवाला मनुष्य जीभको निकासकर चेष्टा करै तिस मनुष्यको अर्धरात्रिमें पवनसे आहतहुये पानीका पान करावै ॥ ३० ॥वेर अनार विजोरा अम्लवेतस चूका यह पंचाम्लक रस मुखपै लेप करनेसे तत्काल तृषाको शांत करताहै ॥ ३१ ॥
त्वचं प्राप्तश्च पानोष्मा पित्तरक्ताभिमूच्छितः॥३२॥ दाहं प्रकुरते घोरं तत्रातिशिशिरो विधिः॥अशाम्यति रसैस्तृप्ते रोहिणीं व्यधयेच्छिराम्॥ ३३॥
और त्वचामें प्राप्त और पित्तरक्तकरके मिश्रित मद्यकी अग्नि ॥ ३२ ॥ घोररूप दाहको अत्यंत करती है तहां अत्यंत शीतल विधि हितहै और शीतल उपचारकरके भी नहीं शांत हुई दाहमें मांसके रसोंकरके तृप्त किये मनुष्यके रोहिणी संज्ञक नाडीको बाँधै ॥ ३३ ॥ .
उल्लेखनोपवासाभ्या जयेच्छेष्मोल्बणं पिवत् ॥ ३४ ॥ शीतं शुण्ठीस्थिरोदीच्यदुऽस्पर्शान्यतमोदकम्॥निरामं क्षुधितं काले पाययेबहुमाक्षिकम् ॥३५॥ शार्करं मधु वा जीर्णमरिष्टं सीधुमेव च ॥ रूक्षतर्पणसंयुक्तं यवानीनागरान्वितम् ॥३६॥ कफकी अधिकतावाले मदात्ययको वमन और लंघन करके जीते ॥ ३४ ॥ अथवा सूट शालपर्णी नागरमोथा धमासा इन्होंमेंसे एककोईसे पकायेहुये पानीको पावै और आमसे रहित और क्षुधावाले तिस रोगीको उचित कालमें बहुतसे शहदसे संयुक्त ॥ ३५ ॥ शार्करमदिराको अथवा मार्दीकमदिराको पान करावै अथवा रूक्षरूप तर्पणोंकरके संयुक्त और अजवायन तथा सूंठ करके अन्वित पुराने आरष्टको तथा सीधूको पान करावै ॥ ३६ ॥
यूषेण यवगोधूमं तनुनाल्पेन भोजयेत् ॥ उष्णाम्लकटुतिक्तेन कौलत्थेनाल्पसर्पिषा ॥ ३७॥शुष्कमूलकजैश्छागै रसैर्वा धन्व चारिणाम् ॥साम्लवेतसवक्षाम्लपटोलीव्योषदाडिमैः॥३८॥ स्वच्छ और अल्प घेतसे संयुक्त और कुलथीसे वनाहुआ और अल्प उष्ण अम्ल तिक्त कटुसे संयुक्त यूष करके जव और गेहूंको खुलावै ।। ३७ ॥ अथवा सूखी मूलीसे उपजे रसोंकरके और अम्लवेतस विजोरा परवल झूठ मिरच पीपल अनारसे संयुक्त और जांगलदेशमें उपजनेवाले बकके मांसके रसोंकरके भोजनको खुलावै ॥ ३८ ॥
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