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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ५२१ )
और शांठी सैंजना खरैहटी क्षीरकाकोली विदारीकन्द इन्हों करके ॥ ६८ ॥ नस्य धूमपान भोजनके उपरांत स्नेह और अभ्यंगके योगवाले तेल और बस्तिकर्म ये सब अत्यंत करने चाहिये ॥ ६९ ॥
शृङ्गाद्यैर्वा यथादोषं दृष्टमेषां हरेदसृक् ॥ प्रदेहः सघृतैः श्रेष्ठः पद्मकोशीरचन्दनैः॥७०॥ दूर्वामधुक मञ्जिष्ठाकेसरैर्वाघृतप्लुतैः॥ वटादिसिद्धतैलेन शतधौतेन सर्पिषा ॥ ७१ ॥ अभ्यङ्गः पयसा सेकः शस्तश्च मधुकाम्बुना ॥
अथवा इन राजरोगियोंके दुष्टहुये रक्तको दोषोंके अनुसार सिंगी तुंबी पछना जोख इन्होंकर के निकासै और पद्माख खा चंदनमें घृत मिल लेप करना हितहै ॥ ७० ॥ अथवा घृत संयुक्त किये दूध मुलहटी मजीठ केशरके लेप हित हैं, अथवा वटआदि गणके औषधोंमें सिद्ध किये तेल करके अथवा १०० वार धोये घृत करके ॥ ७१ ॥ अभ्यंग और दूधकरके तथा मुलहटी के पानी करके सेंक करना अच्छा है ||
प्रायेणोपहताग्नित्वात्सपिच्छमतिसार्य्यते ॥७२॥ तस्यातिसा
ग्रहणीविहितं हितमौषधम्॥ पुरीषं यत्नतो रक्षेच्छुष्यतो राजयक्ष्मिणः ॥ ७३ ॥ सर्वधातुक्षयार्त्तस्य बलं तस्य हि विड्बलम् ॥
और प्राय: करके नष्टहुई अग्निकरके राजरोगी शाल्मलीके निर्यासके समान अतिसारको प्राप्त होताहै ॥ ७२ ॥ तिसरोगीको अतिसार और ग्रहणीरोगमें कहा हुआ औषध हित है सूखते हुये राजरोगी विष्ठाको जतनसे रक्षित करै ॥ ७३ ॥ क्योंकि सबधातुओंके क्षयसे पीडितहुये वह विष्ठाका बलही बलरूप है ॥
मासमेवाश्नतो युक्त्या माकं पिबतोऽनु च ॥ ७४ ॥ अविधारित वेगस्य यक्ष्मा न लभतेऽन्तरम् ॥ सुरां समण्डां मार्डीकमरिष्टान्सीधुमाधवान् ॥ ७५ ॥ यथार्हमधुपानार्थं पिवेन्मांसानि भक्षयन् ॥ स्रोतोविबन्धमोक्षार्थं बलौजः पुष्टये च तत् ॥७६॥
• और युक्तिकरके मांसको खानेवालेके और पश्चात् युक्ति करके मार्डीकसंज्ञक मदिराको पोनेवालेके ॥ ७४ ॥ और मूत्रआदि वेगोंको नहीं धारण करनेवालेके राजयक्ष्मारोग नहीं होता है और मदिरा मंड मार्दीक अरिष्ट सीधू माधव इन मदिरा के भेदों को ॥ ७५ ॥ यथायोग्य अनुपानके अर्थ पीत्रे और मांसोंको भक्षित करै क्योंकि स्रोतोंके विबंधको छूटने के अर्थ बल और पराक्रमकी पुष्टीके अर्थ यह कर्म हितहै ॥ ७६॥
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