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( ५२० )
अष्टाङ्गहृदये
अर्कामृताक्षीरजले शर्वरीमुषितैय्र्य्यवैः ॥ प्रसेके कल्पितान्सक्तूभक्ष्यांश्चाद्याइली वमेत् ॥ ६१ ॥ कटुतिक्कैस्तथा शूल्यं भक्षयेज्जाङ्गलं पलम् || शुष्कांश्च भक्ष्यान्सुलघूंश्चणकादिरसानुपः॥६२॥ आंक और गिलोय के पानीमें और दूधमें एक रात्रिभर यवोंको भिगोवै पीछे तिन यत्रों के सत्तू बना प्रसेकरोग में भक्षण करे और बलवान् रोगी ॥ ६१ ॥ कटु और तिक्त रसोंकरके वमन करे और शूल्यसंज्ञक जांगलदेशके मांसको खावै और हलके रूप और सूखे भोजनोंको खावे और चणा मटर आदि के रसका अनुपान करे ॥ ६२ ॥
श्लेष्मणोऽतिप्रसेकेन वायुः श्लेष्माणमस्यति ॥ कफप्रसेकं तं विद्वान्स्नग्धोष्णैरेव निर्जयेत् ॥ ६३ ॥ पीनसेऽपि क्रममिमं वमथौ च प्रयोजयेत् ॥ विशेषात्पीनसेऽभ्यङ्गान्स्नेहस्वेदाश्चशी - लयेत् ॥ ६४ ॥ स्निग्धानुत्कारिका पिण्डैः शिरः पार्श्वगलादिषु ॥ लवणाम्लकष्णांश्च रसान्नेहोपसंहितान् ॥ ६५॥
कफके अतिप्रसेक करके वायु कफको फेंकता है तिस कफप्रसेकको विद्वान् मनुष्य स्निग्ध और उष्ण औषध करके जीते ॥ ६३ ॥ इस क्रियाक्रमको पीनसमें तथा छर्दिमेंभी प्रयुक्तकरे और विशेषकरके पीनस रोग में अभ्यंग स्नेह स्वेद इन्होंका अभ्यास करे ॥ ६४ ॥ परंतु लप्सिकाके पिंsiकरके स्निग्धरूप अभ्यंग स्निग्ध स्वेदोंको शिर पराली गले आदि सीति करे और स्नेहकरके मिलेहुये और लवण अग्ल कटु गरम रसोंको सेवित करें ॥ ६५ ॥
शिरोंसपार्श्वशूलेषु यथादाषं विधिं चरेत् ॥ औदकानूपपिशितैरुपनाहाः सुसंस्कृताः ॥ ६६ ॥ तत्रैष्टाः सचतुःस्नेहा दोषसंसर्ग इष्यते ॥ प्रलेपो नतयष्ट्याह्वशताह्रा कुष्ठचन्दनैः ॥ ६७ ॥ बला रास्नातिलैस्तद्वत्ससर्पिर्मधुकोत्पलैः ॥
शिर कंधा पशलीके शूलोंमें दोषके अनुसार विधिको करे और जल तथा अनूपदेशके जीवों के मांसोंकरके अच्छीतरह संस्कृत और चार प्रकारके स्नेहोंसे संयुक्त उपनाह स्वेद ॥ ६६ ॥ वांछित और दोषोंके मिलापमें तगर मुलहटी शतावरी कूठ चंदनके लेप करने चाहिये ॥ ६७ ॥ अथवा खरैहटी रायशण तिल घृत मुलहटी कमल इन्होंकरके लेप हित है ॥
पुनर्नवाकृष्णगन्धाबलावरीविदारिभिः ॥ ६८ ॥ नावनं धूम पानानिस्नेहाश्चोत्तरभक्तिकाः । तैलान्यभ्यङ्गयोगीनिवस्तिकर्म्म
तथा परम् ॥ ६९ ॥
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