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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ५१७ )
स्वरसैर्धृतम् ॥ साधितं कासजित्स्वर्य्यं सिद्धमार्तगलेन वा ॥ ३६ ॥ बदरीपत्रकल्कं वा घृतं भृष्टं ससैन्धवम् ॥
इस क्षयरोगी के स्वरकी शिथिलता में नस्य और धूमआदिको योजित करे और तिन स्वरकी मंदताओं के मध्य में वातसे उपजी स्वरकी मंदतामें भोजनके उपरांत ॥ ३५ ॥ कसौंदी वार्ताकी भंगरा इन्होंके स्वरसोंकरके सिद्ध किये घृतको पीवै यह घृत खांसीको जीतता है और स्वर में हित है अथवा नीले कुरंटेमें सिद्धकिये घृतको भी ऐसेही पीत्रै ॥ ३६ ॥ अथवा घृतमें भुनेहुए सेंधा नमक से संयुक्त बडवे के पत्तों को भी भोजनके उपरांत प्रयुक्त करै ॥
तैलं वा मधुकं द्राक्षापिप्पली कृमिनुत्पलैः ॥ ३७ ॥ हंसपाद्याश्च मूंलेन पक्कं नस्तो निषेचयेत् ॥
अथवा मुलहटी दाख पीपल मैनफल बायविडंग ॥ ३७ ॥ हंसपादीकी जड लालजालू इन्होंमें पक्क किया तेल नासिका में प्रयुक्त करें ॥
सुखोदकानुपानं च सर्पिष्कं च गुडौदनम् ॥ ३८ ॥ अभीयात्पायसं चैवं स्निग्धं स्वेदं नियोजयेत् ॥ पित्तोद्भवे पिबेत्सर्पिः शृतशीतपयोऽनुपः ॥ ३९॥ क्षीरीवृक्षाङ्कुरकाथकल्कसिद्धं समाक्षिकम् ॥ अभीयाच्च ससर्पिष्कं यष्टीमधुकपायसम् ॥ ४० ॥
और घृतसे संयुक्त गुड और चावलको खाके ऊपर सुखदायक पानीका अनुपान करै ॥ ३८ ॥ और घृतसहित खीरकोभी खाके सुखपूर्वक गरम पानीका अनुपान करे और सिद्धरूप स्वेदको नियुक्त करे और पित्तसे उपजे राजरोगमें गरमकरके शीतल किये दूधका अनुपान करनेवाला मनुष्य || ३९ ॥ दूधवाले वृक्षोंके अंकुरोंके काथ और कल्कसे सिद्ध किया और शहद से संयुक्त घृतका पीत्रै और मुलहटी करके संयुक्त करी खीरको घृतसे अन्वित कर खावै ॥ ४० ॥
बलाविदारिगन्धाभ्यां विदार्य्या मधुकेन च ॥ सिद्धं सलवणं सर्पिर्नस्यं स्वय्र्यमनुत्तमम् ॥४१॥ प्रपौण्डरीकं मधुकं पिप्पली बृहती बला॥साधितं क्षीरसर्पिश्च तत्स्वर्यं नावनं परम् ||४२ ॥ लिह्यान्मधुरकाणां च चूर्णं मधुघृताप्लुतम् ॥
खरैहटी शालपर्णी विदारकिंद मुलहटी इन्होंकरके सिद्ध किया और लवणसे संयुक्त घृत स्वरमें हित और अत्यंत उत्तमरूप नस्य ॥ ४१ ॥ पौंडा मुलहटी पीपल बडीकटेहली खरैहटी इन्होंमें साधितकिया दूधसहित घृत स्वर में हित है और उत्तमरूप नस्य ॥ ४२ ॥ मधुर पदार्थोंके चूर्णको घृत और शहद से संयुक्तकर चाटै ॥
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