________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(५१८)
अष्टाङ्गहृदयेपिबेत्कटूनि मूत्रेण कफजे रूक्षभोजनः॥४३॥ कट्फलामलक
व्योषं लिह्यात्तैलमधुप्लुतम्।व्योषक्षाराग्निचविकाभानीपथ्या: मधूनि वा ॥४४॥
और कफसे उपजे राजरोगमें रूखे भोजनोंको करनेवाला मनुष्य गोमूत्रके संग कडुवे द्रव्योंको पावै ॥ ४३ ॥ कायफल आमला झूठ मिरच पीपल इन्होंके चूर्णको तेल और शहदसे संयुक्तकर चाटै, अथवा सूंठ मिरच पीपल जवाखार चीता चव्य भारंगी हरडै शहदको चाटै ॥ ४४ ॥
यवैर्यवागू यमके कणाधात्रीकृतां पिवेत्॥भुक्त्वाद्यापिप्पली शुण्ठी तीक्ष्णं वा वमनं भजेत्॥४५॥ शर्कराक्षौद्र मिश्राणिशतानि मधुरैः सह ॥ पिबेत्पयांसि यस्योचैर्वदतोऽभिहतःस्वरः॥४६॥ जोकरके तेल और घृतमें पीपल और आमला करके करीहुई यवागूको पायै तथा भोजन करके पीपलको व सूंठको खावे अथवा तीक्ष्ण वमनको सेवै ॥ ४५ ॥ जिस ऊंचेप्रकारसं बोलने वाले मनुष्यका स्वर नष्ट होजावै यह मनुष्य खांड और शहदमें मिलेहुये और मधुरपदायों के संग पकाये हुये दूधको पीवै ॥ ४६॥ विचित्रमन्नमरुची हितैरुपहितं हितम्॥ बहिरन्तर्मुजाचित्तनिर्वाणं हृद्यमौषधम् ॥४७॥ द्वौ कालौ दन्तधवनं भक्षयेन्मुख धावनैः॥ कषायैःक्षालयेदास्यं धूमं प्रायोगिकं पिबेत्॥४८॥ तालीसचूर्णवटकाःसकर्पूरसितोपलाः॥ शशाङ्ककिरणाख्याश्च भक्ष्या रुचिकरा भृशम् ॥ ४९ ॥
अरुचीरोगमें पथ्य पदार्थोंकरके मिश्रित और विचित्र अन्न हितहै और भीतरसे तथा बाहिरसे शुद्धि और चित्तको ठहराना और सुंदर औषध ॥ ४७ ॥ और दोनों कालोंमें दंतधावनको करना और मुखको धोवनेवाले काथोंकरके मुखको प्रक्षालित करै और स्नेहिक धूमको पावै॥४८॥ कपूर और मिसरीसे संयुक्त और चंद्रमाके किरणोंके समान प्रकाशित और रुचीको अत्यंत करने वाले तालीशपत्रके चूर्णके वडे बनाके खाने योग्यहें ॥ ४९ ॥
वातादारोचके तत्र पिबेच्चूर्णं प्रसन्नया ॥ हरेणुकृष्णाकृमिजि द्राक्षासैन्धवनागरान् ॥ ५० ॥ एलाभाीयवक्षारहिङ्गुयुक्ता घृतेन वा ॥छर्दयेद्वा वचाम्भोभिः पित्ताच्च गुडवारिभिः॥५१॥ लिह्याद्वा शर्करासपिर्लवणोत्तममाक्षिकम् ॥ कफाद्वमेन्निम्ब जलैर्दीप्यकारग्वधोदकम् ॥५२॥ पानं समवरिष्टाश्च तीक्ष्णा समधुमाधवाः॥पिवेच्चूर्णं च पूर्वोक्तं हरेण्वायुष्णवाारणा॥५३॥
For Private and Personal Use Only