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(५१४ )
भष्टाङ्गहृदये
सपिप्पलीकं सयवं सकुलत्थं सनागरम् ॥ १० ॥ सदाडिमं सा मलकं स्निग्धमाजं रसं पिबेत् ॥ तेन षडिनिवर्त्तन्ते विकाराः पीनसादयः ॥ ११ ॥
और पिप्पली जव कुलथी सूंठ ॥ १० ॥ अनार आंवला घृत करके संयुक्त बकरेके मांस के स्वरको पावै, तिसकरके पीनस श्वास खांसी कंधों का शूल शिरका शूल स्वरकी पीडा अरुची विकार शांत होते हैं ॥ ११ ॥
पिबेच्च सुतरां मद्यं जीर्णं स्रोतोविशोधनम्॥ पित्तादिषु विशेषेण मध्वारिष्टात्सवारुणीः ॥ १२ ॥ सिद्धं वा पञ्चमूलेन तामल क्याथवा जलम् ॥ पर्णिनीभिश्चतस्त्रभिर्धान्यनागरकेण वा ॥ ॥ १३ ॥ कल्पयेच्चानुकूलोऽस्य तेनान्नं शुचियत्नवान् ॥
स्त्रोतों को शुद्ध करनेवाली अत्यन्त पुरानी मदिराको पीवै और पित्त कफ वातमें विशेषकर के मधु अरिष्ट आसवको पावै ॥ १२ ॥ अथवा लघुपंचमूल करके सिद्ध किया अथवा मूसली करके सिद्ध किया अथवा शालपर्णी पृश्निपर्णी मूंगपर्णी माषपण करके सिद्ध किया अथवा धनियां सूंठ करके सिद्ध किये जलको पीवै ॥ ॥ १३ ॥ यत्नवाले सेवक इसरोगको पूर्वोक्त जलकरके सिद्धकिये पवित्र अन्नको कल्पित करे ।
दशमूलेन पयसा सिद्धं मांसरसेन वा ॥ १४ ॥ बलागर्भ घृतं योज्यं क्रव्यान्मासरसेन वा ॥ सक्षौद्रं पयसा सिद्धं सर्पिर्दश गुणेन वा ॥ १५ ॥ जीवन्तीं मधुकं द्राक्षां फलानि कुटजस्य च ॥ पुष्कराह्वं शठीं कृष्णां व्याघ्री गोक्षुरकं बलाम् ॥ १६ ॥ नीलोत्पलं तामलकीं त्रायमाणां दुरालभाम् ॥ कल्कीकृत्य घृतं पक्कं रोगराजहरं परम् ॥ १७ ॥
और दशमूल और दूध करके अथवा मांसके रस करके ॥ १४ ॥ अथवा खरेहटीके कल्क में साधितकिया अथवा मांसको खानेवाले जीवके मांसके रसमें साधितकिया अथवा दशगुणे पानी करके साधितकिया अथवा दूधकरके साधित किया घृत शहदसे संयुक्तकर युक्तकरना योग्य है ॥ १५ ॥ जीवन्ती मुलहटी दाख कूडा के बीज पोहकरमूल कचूर पीपल कटेहली गोखरू खरैहटी ॥ १६ ॥ नीलकमल मुशली त्रायमाण घमासा इन्होंके कल्क में पक किया घृत राजरोगको निश्चय हरता है ॥ १७ ॥
घृतं खर्जूर मृडीकामधुकैः सपरूषकैः॥सपिप्पलीकं वैस्वर्य्यकास श्वासज्वरापहम् ॥ १८ ॥ दशमूलशृतात्क्षीरात्सर्पिर्यदुदिया नवम् ॥ सपिप्पलीकं सक्षौद्रं तत्परं स्वरशोधनम् ॥ १९ ॥ शिरः
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