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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम्। (४९५) ईमधुनः शीते शर्कराई तुलारजः॥९७॥ पलार्द्धकं च मारचं त्वगेलापत्रकेसरम् ॥ विनीय चूर्णितं तस्माल्लिह्यान्मात्रां यथाबलम् ॥९८॥ अमृतप्राशमित्येतन्नराणाममृतं घृतम् ॥ सुधामृतरसं प्राश्यं क्षीरमासरसाशिना ॥ ९९ ॥ नष्टशकक्षतक्षीणदुर्बलव्याधिकर्शितान् ॥ स्त्रीप्रसक्तान्कृशान्वर्णस्वरहीनाश्च बृंहयेत् ॥१००॥ कासहिध्माज्वरश्वासदाहतृष्णास्रपित्तनुत् ॥ पुत्रदंछर्दिमू हृद्योनिमूत्रामयापहम् ॥१०१॥
और जीवनीयगणके सब औषध मंठ शतावरी वीरा शांठी ॥ ९४ ॥ खरेहटी भारंगी कौंच ऋद्धि कचूर मुशली पीपल सिंघाडा दूधी लघुपंचमूल||९५॥दाख नारीयल और फिरोट मधुर स्निग्ध बृंहण औषध ये सब एक एक तोलेभर ले महीन कल्क बना तिसके संग ६४ तोलेभर घृतको पकावै ॥ ९६ ॥ और दूध आँवला विदारीकंद इसका रस बकरेके मांसका रस इन्होंसे युक्त किये तिस व्रतको पकावै पीछे शीतल होनेपै ३२ तोले शहद २०० तोले खांड ।। ९७ ।। और २ तोले मिरच और दो दो तोले दालचीनी तेजपात इलायची नागकेशर ये सब ले चूरण बना पूर्वोक्तमें मिला उसकी बलके अनुसार मात्राको चाटै ॥ ९८ ॥ यह अमृतप्राशवत मनुष्यों को अमृतरूप है और दूध और मांसके रसको खानेवाले मनुष्यको अमृतके समान रसवाला यह घत खाना योग्य है ॥ ९९ ॥ और नष्टवीर्यवाला और क्षतक्षीण और दुर्बल और व्याधिसे कार्षित तथा स्त्रियोंमें प्रसक्त कृशवर्ण तथा स्वरकरके हीन मनुष्योंको पुष्ट करता है ॥ १०० ॥ और . पुत्रको देता है और खांसी हिचकी ज्वर श्वास दाह तृषा रक्तपित्त छर्दैि मूर्छा हृद्रोग योनिरोग मूत्ररोगको नाशता है ।। १०१॥
श्वदंष्ट्रोशीरमञ्जिष्ठाबलाकाइमर्यकतृणम् ॥ दर्भमूलं पृथक्पर्णी पलाशर्षभका स्थिरा ॥१०२॥ पालिकानि पचेत्तेषां रसे क्षीरचतुर्गुणे ॥ कल्कैः सुगुप्ता जीवन्तीमेदकर्षभजीवकैः ॥ ॥१०॥ शतावर्यार्द्धमृद्वीकाशर्कराश्रावणीबिसैः॥प्रस्थः सिद्धो घृताद्वातपित्तहृद्रोगशूलनुत् ॥ १०४ ॥ मूत्रकृच्छ्रप्रमेहार्शः कासशोषक्षयापहः॥ धनुः स्त्रीमद्यभाराध्वखिन्नानां बलमांसदः॥१०५॥ गोखरू खश मजीठ खरेहटी कंभारी कतॄण डाभकी जड पृश्निपणी ढाक ऋषभक शालपर्णी ॥ १०२ ॥ इन्होंके रसमें चारगुणा दूध मिला पूर्वोक्त औषध चारचार तोले भर ले पकावै और काच जीवंती मेदा ऋषभक जीवक ॥ १०३ ॥ शतावरी ऋद्धि मुनक्कादाख खांड मुंडी कमलकी डांडी इन्होंके कल्क बना पूर्वोक्तमें मिलावै पीछे तिसमें ६४ तोलेभर सिद्धकिया घृत वातपित्त
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