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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (४७३ ) तिस विधिकरके गुडसहित भिलावेको योजित करै, और ज्वरके आगमनके दिनमें प्रथम लंघनको अथवा बृंहणपदार्थको योजित करै ॥ १५३ ॥
प्रातः सतैलं लशुनं प्राग्भक्तं वा तथा घृतम् ॥ जीर्णं तद्वदधि पयस्तकं सर्पिश्च षट्पलम् ॥१५४॥ कल्याणकं पञ्चगव्यं तिक्ताख्यं वृषसाधितम् ॥ त्रिफलाकोलतर्कारीकाथदना शृतं
घृतम् ॥ १५५ ॥ तिल्वकत्वक्वृतावापं विषमज्वरजित्परम् ॥ विषमज्वरमें प्रभातही, तेलसहित लहसुनको योजित करै, अथवा भोजनसे पहिले पुराने घृतको योजित करै, और तैसेही दही दूव तक और क्षयचिकित्सामें कहाहुवा पट्यल घृत, ॥ १५४ ॥ उन्मादप्रतिषेधमें कहा कल्याणवृत, और अपस्मारप्रतिषेधमें कहा पंचगव्यव्रत, और कुष्ठचिकिसितमें कहा तिक्ताख्यघृत, और रक्तपित्तचिकित्सितमें कहा वृषसाधित वृत इन्होंको प्रभातसे अथवा प्रथम भोजनके समय योजित कर और त्रिफला बेर अरनी इन्होंके साथ और दहीके संग पकाया वृत ॥ १५५ ।। परंतु पकनेके वक्त सावरलोधकी छाल करके प्रतियापितकिया बृत विषमज्वरको जीतताहै ॥
सुरां तीक्ष्णञ्च यन्मयं शिखितित्तिरिकुक्कुटान् ॥१५६॥ मांसं मद्योष्णवीर्यञ्च सहान्नेन प्रकामतःासेवित्वा तदहः स्वप्यादथवा पुनरुल्लिखेत्॥१५७॥ सर्पिषो महती मात्रां पीत्वा तच्छर्दयेत्पुनः॥
और मदिरा तीक्ष्ण मद्य मार तीतर मुरगेके मांस ।। १५६ ॥ और मध्यम उष्णवीर्यवाला मांस इन्होंको इच्छाके अनुसार सेवित करके पीछेते दिनमें शयन करै, अथवा तिस खायेहुयेको फिर छर्दित करै ।। १५७ ॥ घृतको उत्तममात्राका पान करके फिर छर्दित करै ।
नीलिनीमजगन्धां च त्रिवृतां कटुरोहिणीम् ॥ १५८ ॥ पिबेज्ज्वरस्यागमने स्नेहस्वेदोपपादितः ॥ मनोह्वा सैन्धवं कृष्णा तैलेन नयनाञ्जनम् ॥ १५९ ॥ योज्यं हिसमा व्याघ्री वसा नस्यं ससैन्धवम्॥पुराणसर्पिःसिंहस्य वसा तद्वत्ससैन्धवा ॥१६॥
और नीलिनी तुलसी निशोथ कुटकी इन्होंको ॥ १५८ ॥ स्नेह और पसीनासे प्रथम संयुक्त हुवा मनुष्य ज्वरके आगमनसे पहिले पावै और मनशिल सेंधानमक पीपल इन्होंको तेलमें पीस नेत्रोंमें अंजन डालै, अथवा मालिश करै ॥ १५९ ॥ हांगके समान सिंहकी वसा( चर्वी ) तिसमें सेंधानमकको मिला नस्यमें प्रयुक्तकर, अथवा पुराणा वृत सिंहकी वसा सेंधानमक इन्हों को मिला नस्य वना प्रयुक्त करै ।। १६० ।।
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