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( ४७४.)
अष्टाङ्गहृदय
पलङ्कषा निम्बपत्रं वचा कुष्ठहरीतकी ॥ सर्षपा सयवा सर्पिर्धूपो विड्डा बिडालजा ।। १६१ ॥ गूगल, नींबके पत्ते, बच कूठ हरडै शरसों जब घृत इन्होंकी धूप अथवा विलावक विष्ठा ॥ १६१ ।। पुरध्यामवचासर्जनिम्बार्कागरुदारुभिः ॥ धूपो ज्वरेषु सर्वेषु प्रयोक्तव्योऽपराजितः ॥ १६२ ॥ धूपनस्याञ्जनत्रासा ये चोक्ता श्चितवैकृते ॥
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गूगल रोहिपतृण बच एला नींबके पत्ते आककी जड अगर देवदार इन्होंकरके धूप बना सर्वप्रकार के ज्वरोंमें प्रयुक्त करना योग्य है, यह अपराजित धूप कहाती है ॥ १६२ ॥ उन्माद और अपस्माररोगके चिकित्सितमें धूप नस्य अंजन त्रास ये सब कहे हैं, वे सब विषमज्वर में प्रयुक्त करने योग्य हैं ॥
दैवायं च भैषज्यं ज्वरान्सर्वान्व्यपोहति ॥ १६३ ॥ विशेषाद्विषमान्प्रायस्ते ह्यागंत्वनुबन्धजाः ॥
और मणी मंगल बलि भेंट प्रायश्चित्त जप दान स्वस्त्ययन आदि औषधभी सवं प्रकारके ज्वरों को हरती है ॥ १६३ || और यही औषध भूतआदिके अनुबंध से उपजेहुये विषमज्वरोको विशेषता से हरते हैं |
यथास्वं च शिरां विध्येदशान्तौ विषमज्वरे ॥ १६४ ॥ केवला निलवीसर्पविस्फोटाभिहतज्वरे ॥ सर्पिः पानहिमालेपसेकमांस रसाशनम् ॥ १६५॥ कुर्य्याद्यथास्वमुक्तं च रक्तमोक्षादिसाधनम् || और विषमज्वरकी शांति नहीं होवे तो यथायोग्य शिराको बीधै ॥ १६४ ॥ और केवल वात विसर्परोग विस्फोट चोटसे उपजे ज्वरमें घृतका पान शीतल लेप सैक मांसके रसको पीना ये क्रमसे हित कहे हैं ॥ १६५ ॥ और यथायोग्य कये रक्त मोक्ष आदि साधनको भी करै ॥
ग्रहोत्थेभतविद्योक्तं बलिमन्त्रादिसाधनम् ॥ १६६ ॥ औधपी गन्धजे पित्तशमनं विषजिद्वि । इष्टैरथैर्मनोज्ञेश्च यथादोषश मेन च ॥ १६७ ॥ हिताहितविवेकैश्च ज्वरं क्रोधादिजं जयेत् ॥ और ग्रहआदिके आवेश से उपजेहुये ज्वर में भूतविद्या में कहाहुआ बली मंत्र आदि सावन चिकित्तिको करे ॥ १६६ ॥ औपाधिके गंधसे उपजे उरमें पित्तको शमन करनेवाला चिकित्सित है और विषसे उपजे ज्वर में विषको जीतनेवाली चिकित्सा करें और मनकरके रमणीकरूप त्रिपयों करके और दोष के अनुसार शमन करके ॥ १६७ ॥ हित और अहितके विवेककरके को वादिसे उपजे ज्वरको जीते ॥
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