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(४७२)
अष्टाङ्गहृदये
तक सेवै, कुलथी, ब्रीहि, कोहूको सेवै और कंप उपजै तो अन्यभी पित्तको उपजानेवाले द्रव्यको- . सेवै ॥ १४४ ॥ प्रियरूप और सुंदर चूंचियोंवाली पुष्ट और विशेषकरके भ्रमतेहुये गहनोंवाली यौवन और आसबके पीनेकरके उन्मत्तहुई स्त्रिये तिस कांपतेहुये मनुष्यको आलिंगित करें ॥ १४५ ॥ पीछे गतशीतवाले बिसरोगीको जानकर तिन स्त्रियोंको अलगकर देवै ।।
वर्द्धनेनैकदोषस्य छपणेनोच्छ्रितस्य च ॥ १४६ ॥
कफस्थानानुपूर्व्या वा तुल्यकक्षाञ्जयेन्मलान् ॥ और एकदोपके बढाने करके और बढेहुये दोपको घटाने करके ॥ १४६ ॥ अथवा कफस्थानकी आनुपूर्वीकरके तुल्यकक्षवाले मल अर्थात् वातदोषोंको जीतै ॥
सन्निपातज्वरस्यान्ते कर्णमूले सुदारुणः॥१४७॥शोफःसंजायते तेन कश्चिदेव प्रमुच्यते ॥रक्तावसेचनैः शीघ्रं सर्पिःपानेश्च तं जयेत् ॥ १४८॥ प्रदेहै कफपित्तनै वनैः कवलग्रहैः ॥
और सन्निपातज्वरके अन्तमें कानकी जडमें अत्यन्त दारुणरूप ॥ १४७ ॥ शोजा उपजे तिस करके कोईक मनुष्य जीवताहै, तिस शोजेको रक्तके कढाने घृतके पान करके ॥ १४८ ॥ कफ और पित्तको नाशनेवाले लेप नस्य प्रास करके शीघ्र जीतै ॥
शीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्यैर्वरो यस्य न शाम्यति ॥ १४९ ॥
शाखानुसारी तस्याशु मुञ्चेवाहोः क्रमाच्छिराम् ॥ और शीतल उष्ण चिकना रूखा आदिकरके जिसका उवर शांत नहीं होवे ।। १४९ ॥ तिसके शाखानुसारपनेसे एकएकबा में शिराको छुटांव अर्थात् नाडीको वेधे ॥
अयमेव विधिः कार्यो विषमेऽपि यथायथम् ॥ १५ ॥
ज्वरे विभज्य वातादीन्यश्चानन्तरमुच्यते ॥ और यही विधि विपमञ्चरमेंभी यथायोग्य करनी उचित है ॥ १५० ॥ परन्तु विषमज्वरमें वातआदिका विभाग करके जो विधि अगाडी कहेंगे तिसकोभी करे ॥
पटोलकटुकामुस्ताप्राणदामधुकैः कृताः॥ १५१ ॥ त्रिचतुरः पञ्चशःक्काथा विषमज्वरनाशनायो जयेत्रिफलां पथ्यां गुडूची पिप्पली पृथक् ॥ १५२ ॥ तैस्तैविधानैः सगुडैर्भल्लातकमयापि वा ॥ लंधनं बृंहणं चापि ज्वरागमनवासरे ॥ १५३ ॥
और परवल कुटकी नागरमोथा हरडै मुलहटी ॥ १५१॥ इन्होंमेंसे तीनोंकरके वा चारोंकरके चा पांचोंकरके सिद्धकिय काथ विषमज्वरको नाशते हैं, और विषमज्वरमें त्रिफलाको वा हरडेको गिलोयको वा पीपलीको पृथक् पृथक योजित करै ।। १५२ ॥ अथवा रसायनआदिमें कहेहुवे तिस
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