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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (४७१) ॥१३८॥ अन्यैश्च तद्विधैर्द्रव्यैः शीते तैलं ज्वरे पचेत् ॥ कथितैः कल्कितैयुक्तैः सुरासौवीरकादिभिः ॥ १३९ ॥ तेनाभ्यञ्ज्या. त्सुखोष्णेन तैः सुपिष्टैश्च लेपयेत्॥कवोष्णैस्तैः परीषेकमवगाहंच कल्पयेत् ॥ १४० ॥ केवलैरपि तद्वच्च सुक्तगोमूत्रमस्तुभिः॥आरग्वधादिवर्गं च पानाभ्यञ्जनलेपनैः॥१४१॥धूपानगुरुजांस्तांश्च वक्ष्यन्ते विषमज्वरे ॥
और गरमतासीर और गरमस्पर्शवाली तगर अगर केसर करके ॥ १३५ ॥ कूट, रोहिपतृण, शिलाजीत, सरल, देवदार, इन्होंकरके और नख,रास्ना, एकांगी मुरा, वच, खुरासानी अजवायन, दोनों जातकी इलायची, गढोना इन्होंकरके ॥ १३६ ।। सफेदशांढी सहोजना, तुलसी, बालछड, रोहिपतृण, सरसों, दशमूल, गिलोय, दोनोतरहके अरंड, पतंग रोहिष इन्होंकरके ॥ १३७ ॥ तेजपात, अजवायन, शल्लकी, धनियां, अजमोद, शोंफ, उडद, कुलथी पूतिकरंजुआ, दोनोंतरहकी, सपाक्षी, इन्होंकरके ॥ १३८ ॥ और ऐसे प्रकारके अन्यद्रव्योंकरके काथ और कल्क बना तिसमें मदिरा कांजी आदि मिला शीतञ्चरके अर्थ तेलको पकावै ॥ १३९ ॥ पीछे तिस सुखरूप गरम हुये तेलकरके मालिशकरे और अत्यन्त पिष्टकिये तिन द्रव्योंकरके लेपकर और कछुक उष्णरूप तिन पूर्वोक्त द्रव्योंकरके परिपेक और स्नानको कल्पित करावै ॥ १४ ० ॥ और तैसेही कांजी गोमूत्र, दहीका पानी इन केवलों करकेभी परिषेकआदिको कल्पित करे और पूर्वोक्त आरग्वधादिवर्गको पान अभ्यंजन, लेपमें प्रयुक्त करै ।। १४ १ ॥ और जो विषमज्वरमें अगरसे मिली हुई धूपोंको कहेंगे तिन्होंकोभी प्रयुक्त करै ।
अग्न्यनग्निकृतान्स्वेदान्स्वेदिभेषजभोजनम् ॥ १४२ ॥ गर्भभूवेश्मशयनं कुथाकम्बलरल्लकान् ॥ निधूमदीप्तैराङ्गारैर्हसन्तीश्च हसन्तिका ॥१४३॥ मद्यं सत्र्यूषणं तक्रं कुलत्थत्रीहि कोद्रवान् ॥ संशीलयेद्वेपथुमान्यच्चान्यदपि पित्तलम् ॥१४४ ॥ दयिताःस्तनशालिन्यः पीना विभ्रमभूषणाः॥ यौवनासवमत्ताश्च तमालिङ्गेयुरङ्गनाः ॥ १४५॥ वीतं शीतं च विज्ञाय . तास्ततोऽपनयेत्पुनः ॥
और अग्निसे किये तथा कपडाआदिसे किये पसीनोंको सेवै, और सुंदर स्वेदवाली औपध और भोजनको सबै ॥ १४२ ॥ और गर्भगृहके भीतर स्थानमें शयन करें और कुथा, कंबल, रलक मृगचर्मआदि आन्छादितकरनेके वस्त्रोंको धारण करै, और धूमांसे रहित तथा प्रकाशित अंगारों करके खिलीहुई अग्निके किरणकोंको सेवै ॥ १५३ ।। मदिरा, सेवै तथा सुंठ, मिरच पीपलसहित
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