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(४७०)
अष्टाङ्गहृदयेदाहे सहस्रधौतेन सर्पिषाभ्यंगमाचरेतासूत्रोक्तैश्चगणेस्तैस्तैर्मधुराम्लकषायकैः॥१२९॥ दूर्वादिभिर्वा पित्तनैः शोधनादिगणोदितैः॥शीतवीयहिमस्पशैः क्वाथं कल्कीकृतैः पचेत् ॥ १३०॥
तैलं सक्षीरमभ्यंगात्सद्योदाहज्वरापहम् ॥ दाहमें सौ १०० बार धोयाहुआ घृत करके मालिस करनी चाहिये और सूत्रस्थानमें कहेहुए तिन २ मधुर ख? कसैले करके ।। १२९ ॥ अथवा दूर्वाआदिक पित्तनाशकगणोंकरके तथा इन शाधनकादिगामें कहेहर और ठंढी तासीर और स्पर्शवाले औषधोंकरके कियेहुए कल्कमें।।१३०॥ दूधके संग तेलको पकावे, यह तेल मालिसकरनेसे दाहज्वरको नाशताहै ॥
शिरो गात्रश्च तैरेव नातिपिष्टैःप्रलेपयेत् ॥ १३१॥ तत्काथेन परीषेकमवगाहश्च योजयेत् ॥ तथारनालसलिलक्षीरसुक्ततादिभिः ॥ १३२॥
और इन पिछले कहेहुए गण औषधोंको किंचित् पीसीढयों करके शिरका लेप करै ॥ १३१॥ और तिनही गणों के काथ करके परिपेक तथा अवगाह कर्म करै अर्थात् काथसे भरीहुई कडाही आदिमें युक्तकरै और कांजी जल दूध सुक्त कांजी घृत इत्यादिकों करके परिषेक तथा अवगाहकर्म करे ॥ १३२ ॥
कपित्थमातुलिंगाम्लविदारीरोध्रदाडिमैः ॥ बदरीपल्लवोत्थेन फेनेनारिष्टजेन वा ॥ १३३॥ लिप्तेंगे दाहरुग्मोहच्छर्दिस्तृष्णा च शाम्यति॥
और कैथ बिजौरा कारवार विदारीकंद लोध, अनारदाना इन्होंकरके अथवा बडबेरीके पत्तेंकि पीसनेसे उपजेहुए झागोंकरके ।। १३३ ॥ अंगके लेप करनेसे दाह पीडा छर्दि तृपा शांत होतेहैं।।
यो वर्णितः पित्तहरो दोषोपक्रमणे क्रमः॥ १३४॥
तं च शीलयतः शीघ्रं सदाहो नश्यति ज्वरः॥ और जो पित्तको हरनेवाला क्रम दोपेोपक्रमणवाले अध्यायमें कहा है ॥ १३४ ॥ तिसको करते हुए दाहसहितवर शीघ्रही नाशको प्राप्त हो जाता है ।। वीर्योष्णरुष्णसंस्पर्शेस्तगरागुरुकुंकुमैः॥१३५॥ कुष्ठस्थौणेयशेलेयसरलामरदारुभिः ॥ नखरालामुरवचाचण्डेलाद्वयचोरकैः ॥ १३६ ॥ पृथ्वीकाशिग्रुसुरसाहिंस्राध्यापकसपैः॥ दशमूला मृतैरण्डद्वयपन्नूररोहिषैः॥ १३७॥ तमालपत्रभूतिक्तशल्लकी धान्यदीप्यकैः।। मिशिमाषकुलत्थाग्निप्रकीर्यानाकुलीद्वयः॥
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